________________
किरण १२]
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
३८९
-
सामान्य पुरुषमें 'अग्नि आदि पदार्थ रूपदृष्टान्तकी सामर्थ्य 'नरः कोप्यस्ति सर्वज्ञः तत्सर्वज्ञत्वमित्यपि । से 'अनुमेयत्र' (अनुमानके विषय) रूपहेतुके द्वारा सूक्ष्म, साधनं यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञान्यूनमेव तत् ।। अन्तरित (कालव्यवहित) और दूरवर्ती पदार्थों की प्रत्यक्षता सिधार्धाषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते । की मिद्धि (अनुमान द्वारा साधना) की है। इस तरह इस कारि- यत्तूच्यते न तत्सिद्धी किश्चिदस्ति प्रयोजनम ।। काके द्वारा सर्वज्ञ-सामान्यकी सिद्धि की गई है। इसके पहिले यदीयागमसत्यवसिद्धेय सर्वज्ञतच्यते । समन्तभदने एक अन्य कारिकाके द्वारा 'सर्वज्ञता' की कसौटी न सा सर्वज्ञसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ।। एवं नियामक 'वीतरागता' (दोष और श्रावरण की रहितता) ___ यावद् बुद्धो न सर्वज्ञस्तावद् तद्वचनं मृषा। को बतलाया है और उसका साधन भी उन्होंने 'वधियथा' यत्र कचन सर्वज्ञे सिद्ध तत्सत्यता कुतः।। जैसे सामान्य शब्दोफे प्रयोग पूर्वक किया है। समन्तभद्र अन्यस्मिन्नहि सर्वज्ञ वचनाऽन्यस्य सत्यता। की वह कारिका इस प्रकार है--
सामानाधिकरण्ये हि तयोरङ्गाङ्गिता भवेत् ।। दोपावरणयोहानिनिशेपास्त्यतिशायनान।
-तत्वसंग्रह ३.३० से ३२३४ तक । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥
.. ये कारिकाएँ कुमारिल ने स्पष्टतया समन्तभद्रकी सामान्य इसमें बतलाया है कि किसी आत्मा-विशेषमें दोप
सर्वज्ञकी सिद्धि और विशेषसर्वज्ञकी सिद्धि के खंडनको लक्ष्य (अज्ञानादि) और भावरणों (ज्ञानावरणदिकर्म) का सर्वथा
करके रची हैं, क्योंकि कुमारिल के पूर्व समन्तभद्र के सिवाय क्षय होता है, क्योंकि इनकी न्यूनाधिकता देखी जाती है और
किसी भी दार्शनिकने उक्त प्रकारसे सर्वज्ञका साधन नहीं
किया है, जिसका यह वुमारिल कृत खंडन कहा जाय । हौं, जिम प्रारमामें यह 'वीतरागता' (निर्दोषता):क्ट हो जाती
बौद्ध परंपरामे बादको होने वाले बौद्धप्रवर शांतरक्षित और है उसी प्रामामे पूर्वोक सर्वज्ञता संभावित है, अन्यमें नहीं।
उनके शिग्य कमलशीलने 'अस्ति कोऽपि सर्गज्ञः, कचिहा समन्तभद्र नीचेकी दो कारिकाओं द्वारा इसी बातको प्रकट करते हैं और पूर्वोक्त सामान्य-सर्वज्ञताका श्राश्रय 'अर्हन्त
सर्वाज्ञत्वां, प्रज्ञादीनां प्रक.पदर्शनात्' रूपसे सामान्य निन को ही बतलाते हैं। यद्यपि समन्तभद्र ने आगेकी
सर्वज्ञसाधनका निर्देश अवश्य किया है, पर वह उनका इन कारिकायोमे भो जैनसम्मत 'अन्त' या 'जिन' शब्द
स्वतन्त्र उद्भावन नहीं है, वह तो कुमारिलकी उक्त कारिका प्रयोग नहीं किया है तथापि पूर्वापरके सम्बन्ध मिलाने
काओंका ही अर्थस्फोट है। दूसरे, जब शांतरक्षित कुमारिल पर यह मालूम हो जाता है कि जैनपरंपगभिमत स्यावाद
के नामसे उनकी उक्त कारिकाएं उद्धत करते हैं, तो कुमारिलनायक 'अर्हन्न-जिन' में ही उन्होने विशेषरूपसे सर्वज्ञता
कृत उक्त खंडन शांतक्षित या उनके व्याख्याकार कमल. का साधन किया है। समन्तभद्रकी वे दोनो कारिकाएँ इस
शील का खंडन नही कहा जा सकता। तीसरे, शांनरक्षित प्रकार हैं--
और कमलशील कुमारिल के उत्तरवर्ती विद्वान् हैं और
उनका समय ईसाकी आठवी शताब्दी है। जबकि कुमारिल स त्वमेवासि निर्दापी युक्तिश्मास्त्राविरोधिवाक।
सातवी शताब्दीके विद्वान् हैं। चौथे, समन्तभद्रके कितने अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ।।
ही विचारों, पद-वाक्योंका अनुसरण या खंडन तत्वसंग्रहमें त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम । प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन वाध्यते ॥
पाया जाता है, यहां तक कि समन्तभद्रके उत्तरवर्ती पात्र.
स्वामी, सुमतिदेव श्रादि दिगम्बराचार्यो तक्का खंडन भी -आप्तमी० का०६, ७
उपलब्ध है । अतः तत्वसंग्रहमें पाया गया सामान्य और कुमारिल, समन्तभद्र के द्वारा प्रयुक्त कश्चिद्' 'क्वचिद' और 'कस्यचितू इन सामान्य शब्दोको लेकर, उनके द्वारा
१ ये कारिकाएं अष्टमहस्री पृ० ७५ पर एतेन युदु भट्टेन'
करके उद्धत हैं। प्रस्थापित इस सामान्य और विशेष सर्वज्ञताका खंडन बढे
२देखो, तवसंग्रह पृ. ३७६, ३८२, ३८३, ४०६, ४१५, भावेश और युक्तिवादके साथ निम्न प्रकार करता है--