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अनेकान्त
[वर्ष ५
समन्तभद्र भतृहरिके उत्तरवर्ती होते तो वे भी उनके अपनी प्राप्त भीमांसामे सर्व प्रथम सामान्यरूपसे सर्वका शब्दाद्वैतवाद और स्फोटवादका, जिसने अपने समयमै खूब प्रस्ताव करते हैं और कहते हैंजोर पकना था. बंडन किये बिना न रहते । परन्तु समन्त ताथकृत्समयानां च परस्परविरोधतः। भद्रकी एक भी कृतिम उक्त चर्चाकी गंध तक नही है। सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः॥ उत्तरवर्ती होने पर कोई वजह नहीं कि समन्तभद्र सामान्य
अर्थात्-सभी तीर्थ-प्रवर्तको और उनके उपदेशोंमें रूपसे भदैतवादका खण्डनकर जाने पर भी विशेषरूपये परस्परविरोध होनेसे सब तो प्राप्त नही होमकते, कोई ही बौद्धदर्शनसम्मत विज्ञानाद्वैत तथा बहिरर्थाद्वैत जैसे अद्वैतों
(एक) गुरु (प्राप्त-मवंज्ञ) होना चाहिये।
की की तो मालोचना कर जाये किन्तु भर्तृहरिके वाक्यपदीयगत
भट्ट कुमारिल इसकी आलोचना करते हुए लिम्बने हैंसन्दाद्वैतपर एक शब्द भी न लिखें, जिसकी चचाने अपने
सर्वज्ञेषु' च भूयम्मु विरुद्धार्थीपदेशिपु । ममयमे एक भारी तहलका मचा दिया था और कुमारिन.
तुल्यहेतुपु सर्वेषु को नामकोऽवधायेताम ।। धर्मकीर्ति, अकल क जैसे तार्किकोंको बरबस अपनी पोर
सुगतो यदि सर्वाज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। प्राकर्षित किया था। इससे साफ है कि भर्तृहरिके असमालोचक
अथोभावपि सर्वाज्ञी मतभेदः तयोः कथम ।। समन्तभद्र उसी प्रकार भर्तृहरिके पूर्ववर्ती हैं जिस प्रकार कि
-तत्त्वम० का०३१४८-४६ भर्तृहरिके प्रसमालोचक दिग्नाग भर्तृहरिके पूर्ववर्ती है।
यहां समन्तभद्र के परस्परविरोधतः के स्थानमे कुमा समन्तभद्र और कुमारिल
रिलने विरुद्धापदेशिपु' पटका प्रयोग किया है और प्रमिन्द मीमांसकताविक कुमारिल भट्टने समन्तभद्रीय जिस विरोध की समन्तभदने सूचना मात्र दी थी उस माप्तमीमामाकी अनेक कारिकाओंकी पालोचना की है और विरोधको कुमारिल ने दूसरी 'सुगतो यदि सर्वज्ञः' इस प्राप्तमीमांसाके कितने ही पद, वाक्यों तथा कारिकाओंका कारिकाके द्वारा स्पष्ट किया है। साथ ही समन्तभद्र ने जो यह बिम्बप्रतिबिम्बरूपसे अनुपरगा भी किया है। नीचे इसका कहा था कि 'कश्चिदेव भवेद्गुरुः'-'कोई ही एक सर्वज्ञ कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है
होना चाहिए उसका विरोध कुमारिल ने 'को नामकोऽवयद्यपि सर्वज्ञत्व की मान्यता बहुत प्राचीन है और धार्यताम'-'किस एक का निश्रय करते यो' जैसे शब्दों उसका साधन भी दार्शनिकोंमे विविधरूपये किया है पर द्वारा किया है। समन्तभद्रने उसके माधनका जो ढंग एवं सरणि अपनाई है समन्तभद्र जब अपने उपयुन प्रस्तावानुसार एक वह अन्यग्र अलभ्य है। सातवी शताब्दी तक के न्याय, दूसरी कारिका में सर्वज्ञका मामान्यरूप से 'अनुमेयम्ब' हेतु वैशेषिक और बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थों में न तो समन्तभद्र जैमी के द्वारा संस्थापन करते हैं तो कुमारिल इसकी भी पालो मर्वज्ञकी सिद्धि उपलब्ध होती है और न उन जैसी सर्वज्ञ- चना करते हैं। समन्तभद्रकी वह सामान्य मर्वजकी माधक साधनमें अपनाई गई सरीण ही पाई जाती है। समन्तभद्र कारिका निम्न प्रकार है-- १ न्याया-वैशेषिक ईश्वरको ही सर्वज्ञ मानत है । युक्त सूक्ष्मान्तरितदृगा प्रत्यक्षाः कचियथा । और वियुक्त योगी अामायाको मर्वज मानत तो हैं, पर
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वाज्ञसंस्थितिः ।। मोक्ष होने के बाद, उनका जान योगजन्य होनेसे शेष नहीं
यहां समन्तभद्रने 'कस्यचिन जैसे सामान्य शब्दका रहता। साख्य, योग और वेदान्त दर्शन भी न्याय- प्रयोग किया है जो सामान्य पुरुष' का वाचक है और उस
शपिककी ही तरह सर्वजत्व मानत है अन्तर सिर्फ इतना १ इन कारिकायांकी शतक्षितने तत्वमंग्रहम कुमारिल के है कि साव्य, योग प्रकृति (बुद्धि) नत्मे, वेदान्त बुद्धि- नाममे उदधृत किया है। अपमहत्री प्र. में विधानद म वर्म मर्वशत्व मानते हैं।
ने भी दूसरी कारिका 'नदुक' करके मालिका तपमे ---देखो, प्रमाण मी० भा० टि. पृ० २६ उद्धृत की है।