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अनेकान्त
वर्प५
अभी ३ प्रभ अवशिष्ट रह जाते हैं जो इस मान्यनामें उन्हें श्लोकवातिकमें स्पष्टतः उसका तत्त्वार्थसूत्रके अंगके अनुपपत्ति उत्पन्न करते हैं
रूपमे सोन्थान व्याख्यान करना था। (1) प्राप्त परीक्षाके 'प्रोग्यानारम्भकाले' वाक्यमें आये यह कहना कि 'विद्यानन्द अष्टमहम्री और प्राप्त. हुए प्रोत्थान पदका वास्तविक अर्थ क्या हो सकता है? परीक्षामे इस श्लोकका व्याख्यान कर आप हैं अनः श्लोकनभी शब्दोके अर्थोका प्रचलन मात्र बोके आधारसे ही वार्तिकमे इसका व्याख्यान नही किया' संगत नहीं मालूम नहीं होता है। अनेक शब्दों के प्रचलनमै व्यवहार कोषकी होता। क्योंकि जो वाक्य या श्लोक जिस शास्त्रका अग अपेक्षा नही भी करता । दर्शनशास्त्रीशी साधारण पद्धतिम होता है उसका वही विस्तार या संक्षेपसे व्याख्यान करना उत्थान या उल्थानिका शब्द का प्रयोग किसी श्लोक या पंकिकी आवश्यक है। यदि व्याख्यान नहीं किया जाता है तो भूमिकाके अर्थ में होता है। इस श्लोककी उथानिका क्या है ?, उसकी सूचना व्याख्याकार वहां पर अवश्य दे देता है। इस पंक्तिका उत्थानवाक्य क्या है आदि प्रयोग दार्शनिकों जैसे धवलाटीकाम महाबन्धनामक छठवं खंडका व्याख्यान की जबानपर चढ़े रहते हैं। इस लिए प्रोत्थान' का नही किया पर वीरसन स्वामीने उसकी सूचना यथावसर व्यवहारसिद्ध अर्थ भूमिका ही होता है । फिर याद अवश्य दे दी है ( देखो षट् ग्वण्डागम् प्रथम पुस्तक, विद्यानन्दको 'तत्वार्थसूत्रका प्रारम्भ ही इष्ट था तो श्राम्भ प्रस्तावना पृ० ६७) दूसरी बात यह है कि विद्यानन्द अष्टपद देने में ही लाघव था। प्रोत्थान और प्रारम्भ दोनों महम्री और प्रातपरीक्षाके पहिले तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पदोंका प्रयोग अपना खाम अर्थ रखता है। जिसा अनु- बना चुके हैं क्योंकि उन्होंने अष्टसहस्री (पृ. ४७) नथा सरण करने पर उनका पूर्वाचाय परम्परा समन्वय किया श्रातपरीक्षा (पृ. ६४ ) में श्लोकवातिकका निर्देश किया जा सकता है।
है। अत: बादमें रचे गए अष्टसहमी और प्राप्तपरीक्षाके (२) प्राप्तपरीक्षा ( पृ०६४)म लिख गये "तमर्थ आधार पर श्लोकवातिकके प्रारम्भमे उक्त मंगल श्लोककी सूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः" ये शब्द क्या विद्यानन्दकी
व्याख्या न करनेकी बातको संगत बताना ठीक प्रतीत नही हाष्टम उमास्वामिकी तरह प्रभृति शब्दसे मूचित होने वाले
होता। तिस पर भी, अष्टसहस्री उक. मंगल श्लोकको अन्य प्राचार्योके ग्रन्थीको तत्वार्थसूत्र' माननेकी पोर स्पष्ट लच्य करके लिखी गई है यह भी अनिश्चित है। सकेत नहीं कर रहे हैं ? और क्या ये ही शब्द उमास्वामि विद्यानन्दकी मान्यतामें पूर्वाचायपरम्परा के माथ ही साथ प्रभृनि शब्दस बाधित होने वाले तत्त्वार्थ
के ममर्थन का अभाव विवेचक पूज्यपादादि श्राचार्योको स्पष्टत: 'मूत्रकार नहीं इम सब अनुपपत्तियोके रहने हुये भी उनके मित्रकह रहे हैं ? बिना किसी प्राचीन प्रतियोक श्राधारके 'तवार्थ कारा प्राहुः' आदि अन्य उल्लेखोंको मुख्यार्थक मानकर यह मूत्रकारादिभिः पाठकी कल्पना विदग्राह्य नहीं हो सकती। भी मान लिया जाय कि वे इस श्लोकको मयकारकृत इसीमे तो विवाद है कि विद्यानन्द उमास्वामिके साथ अन्य मानते थे तो यह महत्वका प्रश्न विचारणीय है कि उन्हें पूर्वाचार्योको मूत्रकार समझते थे या नहीं ? प्रभृतिशब्दमे अपने पूर्वाचार्योकी भी ऐसी कोई परम्परा प्राप्त थी क्या ? बोधित होने वाले अन्य चायोको नवाथसूत्रकार लिख विद्यानन्द के पूर्ववर्ती जिन दि. प्राचार्योके तत्वार्थसत्रके कर विद्यानन्दने स्वयं सूत्र शब्दको गौणार्थक मूचित किया ऊपर लिग्ब गये टीकाग्रंथ उपलब्ध हैं उन पूज्यपाद और है। उनकी दृष्टिमे सूत्रका अर्थ शास्त्र मालूम होता है। अकलक आचार्यका इस विषयमे क्या अभिप्राय था ?
(३) विद्यानन्द के मामने यह शौक था यह निर्विवाद श्रा. पुज्यपाद सर्वार्थ गिद्विमे तत्वार्थपत्रके किसी भी है और उन्होंने प्रथम सूत्रकी पीठिकामे उन श्लोकमे अंशको बिना व्याख्या और उत्थानक नहीं छोड़ते वे उसके वणित प्राप्तके साथ उसका पाद्यवक्त व सम्बन्ध जोडा एक एक शब्दका व्याख्यान करते हैं । यह उनकी व्यास्यायह भी ठीक है। पर प्रश्न तो यह है कि वे उसे स्पष्टतः पद्धति है । वे सर्वार्थमिद्विम 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मगल - नत्वार्थमृत्रका अंग भी मानते थे क्या ? यदि मानते थे तो श्लोककी न तो उन्थानिका ही लिखते हैं न उसकी व्याख्या