________________
किरण ८-
मोक्षमार्गस्य नेतारम्
२८३
ही करते हैं। यदि सरल होनेके कारण उन्हें इसकी व्याख्या है। जिसमें प्रश्नका उत्तर देने के लिये वक्ता ऐसा मंगलकरना इष्ट नहीं था तो 'सुगमम्' लिख कर छोड देते। श्लोक बना रहा है जिसमें उसके प्रश्नका कोई उत्तर नहीं सर्वार्थसिद्धिकी लिखित प्रतियों में यह श्लोक बिना किसी है। उत्तर तो प्रथम सूत्र में है । सर्वार्थसिद्धि मे ऐसा विचित्र उत्थानवाक्यके ही पाया जाता हैं। और न किसी भी प्रश्नोत्तरक्रम नहीं है क्योंकि पूज्यपाद प्राचार्य उक्त श्लोक प्रतिमें इसकी कोई व्याख्या ही मिली है बल्कि मूल को सूत्रकारका नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने इसे स्वयं ही नन्वार्थसूत्रकी कुछ प्रतियामे यह श्लोक नही भी है। उदा- रचा था अन: उन्हें तग्वार्थसूत्रकी उत्थानिकामे इस श्लोकको हरणार्थ-जिस प्रतिके श्राधारसे निर्णयमागरका प्रथम- श्रुतसागरसूरिकी तरह विचित्र ढंगसे शामिल करनेकी गुच्छक छपा है वह ।
श्रावश्यकता ही नहीं हुई। यही कारण है कि पूज्यपादने प्राचार्य पूज्यपाद इस मंगलश्लोको रचकर तत्वार्थमूत्र इस श्लोककी न तो उग्थानिका ही लिखी और न व्याख्या के प्रथम सूत्रकी उत्थानिकामे तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्तिका ही जब कि वे तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक अंशकी सोग्थान व्याख्या निमित्त बनाते हुये 'कश्चिद् भव्यः' इत्यादि लिम्वते हैं। करते हैं। इसका भाव यह है--एक भव्य निर्गन्थाचार्यसे पूछता है इमो तरह अकलंकदेव राजवार्तिकमें तत्वार्थसूत्रके कि भगवन् श्रा'माका हित क्या है ? वे उत्सर देते हैं कि प्रत्येक अंशका या तो वार्तिक बना कर या उनका सीधा मोक्ष । भव्य फिर पूछता है कि-मोक्ष क्या है और उसकी ही विशद व्याख्यान करते हैं। यदि वे भी उन मंगल प्राप्तिका क्या उपाय है ? भावार्य इमी प्रश्न के उत्तरमं श्लोकको तत्वार्थसूत्रका अंग समझते तो इसकी व्याच्या 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: इस प्रथम सूत्रको करते । तथा इसकी उत्थानिका बांधकर इस श्लोकको तत्वाकहते हैं। इस तरह पूज्यपाद श्राचार्य द्वारा बनाई गई सूत्रके अंग होनेकी सूचना देते। अकलंकदेव जिस सर्वार्थभूमिकाके अनुसार यदि तन्वार्थमूत्रकी भव्य के प्रश्न के अनु मिद्धिको सामने रख कर अपना तत्वार्थवार्तिक बनाते हैं उस मार उत्पत्ति हुई है तो सूत्रकारको मंगलाचरण करनेका सर्वार्थ सिद्धिके प्रारम्भमे यह मंगलश्लोक विद्यमान है. इस कोई अवसर या प्रमग ही नहीं था। यदि पूज्यपादकी दृष्टि लिये यदि उनका पूज्यपाद आचर्यसे इस विषयमें मतभेद में यह मंगलश्लोक सूत्रकार कृत होता तो वे श्रनसागरसूरि था अर्थात वे उसे स्वयं पूज्यपाटका नही मान कर सूत्रकार की तरह प्रथमसूत्रकी "प्रथ' श्रीमदुमाम्वामिभट्टारक का मानते थे तो वे प्रथम सूत्रकी उत्थानि कासे पहिले इस निर्गन्धाचार्ययो:तिनिकटीभवपरमानर्वाणन श्रापन्नभव्यंन श्रीकका सूत्रकारकत होना सचिन कर ही देने । और यदि
पायकनाम्ना भव्यवर पुण्डरीकेण सम्पृष्टः-भगवन, किमा- उन्हें यह श्लोक बहुत सरल होनेके कारण व्याख्याके लायक •मने हिनमिति १ भगवानपि नाप्रश्नवशात पम्यग्दर्शनजान नही ऊँचा था तो इसे वे जैसाका तैमा बिना ब्यारण्याके ही चरित्रीपत्नक्षितमन्मार्गमम्प्राप्य' मोक्षो हिन• इति प्रतिपादः ग्रन्थमे शामिल तो करते ही। उन्होंने तत्त्वार्थसत्रका कहीं यिनुकाम इष्टदेवताविशेष नमस्कगतीति ।" ऐसी उत्था- भी अंगरछेद नहीं किया है किन्तु उन्हें जहाँ भी पत्राम निका बाधते । इस उथानिकामे श्रुतमागरमूरिने 'मांक्षमार्ग- पाठभेद उपलब्ध हुये उनका निर्देश एवं समालोचन तक म्य नेतारं श्लोकको सूत्रकार कृत मानने की अपनी पूर्व किया है। जो अकलंक इस तरह तत्वार्थमत्रकी अखण्डना धारणाके कारण सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानकामं विचित्र परि- की सुरक्षा कर रहे हैं वे पहिले ही पहिले मंगलश्लोकके ही वर्तन करके नई उग्थानिका बनाली है। और इसमें उन्होंने विषयमें यों ही चुप्पी साध कर उसे अमंगल कर यह म्प लिख दिया है कि भव्यने प्रश्न किया कि, भगवन अकलंकदेवकी सदमेसिकाके अपरिज्ञानका ही फल है। पर श्रान्माका हित क्या है ? भगवान उसका उत्तर देने के लिये
जय प्रकलंकदेव स्वयं इस विषय में अमन्दिग्ध थे और वे इष्ट देवता नमस्कार करनेके निमित्त 'मोक्षमार्गस्य मगल
निश्चित रूपसे इसे पूज्यपादका मानने थे तब उन्हें प्रारम्भम भोक बनाते हैं।' यह एक अपने ढंगका अभूतपूर्व प्रश्नोनर
इमे तत्वार्थपत्रकं अगक स्पर्म व्याग्या करनेकी या निर्देश देग्यो मायामाटे गानापुर सस्करणकी भूमिका प० २, करने की आवश्यकता ही नही थी।