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अनेकान्त
[वर्ष५
प्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताका आधार- शब्दका अर्थ अष्टमहस्रीम ‘मंगलं पुरस्मरमस्येति मङ्गल इस तरह हम देखते हैं कि जब प्रा. विद्यानन्दको
पुरस्परः शास्त्रावतारकालः तत्र रचितः स्तवः मङ्गलपुर
स्परस्तवः .. ." यह लिखते हैं । अर्थात् मगल होता है इस श्लोकको सूत्रकारकत माननेके लिये अपने पूर्वाचार्योकी
पहिले जिसके वह मंगल पुरस्मर, इस अन्यपदार्थप्रधान कोई परम्परा प्राप्त नही थी तब उनकी इस धारणाका क्या प्राधार है इस बातकी स्वतत्र भावसे जांच की जाय ।
बहुव्रीहिमें वे कालनामक अन्य पदार्थकी कल्पना करते हैं
और ऐसे कालको शास्त्रावतार काल कहते हैं। तथा शास्त्र इस मंगलश्लोकको सूत्रकारकत लिम्बने बाले सर्वप्रथम श्रा०
शब्दमे निःश्रेयस शास्त्र लेकर यह मान लेने हैं कि अकलक विद्यानन्द है। उनकी इस परम्पराये अप्राप्त धारणाकं पक्षम
देव इस प्रशतीमे मङ्गल पुरस्परस्तव' शब्दये निःश्रेयस यदि उत्तरकालीन श्रुतमागरमूरि प्रादिका इमे सूत्रकारकृत
शाम्म्रके श्रादिम क्यिा हुश्रा 'स्तव' ले रहे हैं और उसी मानकर व्याख्या करना अपना मत देता है तो विपक्षमं उनके
स्तव अर्थात 'मोक्षमार्गम्यनेतारम्' स्तवमं वर्णित प्राप्त की पूर्ववर्ती पूज्यपाद अकलंकदेवका इस तत्त्वार्थसूत्रका अग न
परीक्षा इस श्राप्तमीमांसा ग्रन्थमे की जा रही है और इसी मानकर व्यग्व्या न करना पर इसकी उत्थानिका तक नही
मान्यतावश वे श्राग्नपरीक्षा और असहस्रीके अन्त में बाँधना एवं अकलकदेवके द्वारा इसका निरुत्थान निर्देश तक
"स्वामिमीमासितं तत" और 'इतीयमाप्तमीमांसा विहिता' न करना अपना कई गुना बल रखता है। और इस पक्षम
"शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्य मोक्षमार्गःणेतृनया कर्मभृदभेतृतया हम उन समस्त तत्वार्थटीकाकार श्वेताम्बराचार्योको नही
विश्वतस्वाना ज्ञानृतया च भगवरपर्वजस्यैव अन्ययोगव्यवच्छेदेन भुला सकते जिनने एक मतसे इस महत्वके असाम्प्रदायिक
व्यवस्थानपरा परीक्षयं विहिता" यह लिखकर मूचित करने श्लोकको तत्वार्थमूत्रका अग नहीं माना है। मालूम होता
हैं कि समन्तभद्र स्वामीने प्राप्तमीमांसा 'मोक्षमार्गस्य है कि श्रा० विद्यानन्दको जब अपनी धारणाके पक्ष में पूर्वा- नेतारम् महल श्लोकपर बनाई है। चार्याकी परम्परा नहीं मिली और उनका व्याख्यान करना परन्त जब हम 'देवागमेत्यादिमंगल पुररसरंग पति प्रबल बाधक ऊँचा इसी लिये उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के ऊपर लिखे गये अष्टशनीक मंगलश्लोकोंके अतिमभागक में इसे तत्त्वार्थसूत्रका अग मान कर व्याख्या नहीं की, न साथ इसका अनुसन्धान करते हैं नो इस पंक्तिका दसरा इस श्लोककी उत्थानिका ही बांधी और न निरुत्थान निदेश ही मांधा अर्थ निकलता है। अष्टशनीका दृमग मंगलही किया। हाँ, इस श्लोकमें प्रतिपाद्य विशेषामि विशिष्ट लोक यह हैं:याप्तको तत्वार्थमूत्रका याद्यवक्ता मान कर उसका समर्थन तीर्थ सर्वपदार्थतत्वविषयम्याद्वादपुण्योदधेः । अवश्य किया है। वे यदि अपनी धारणाको पर्याप्त बलवती,
भव्यानामकलङ्कभावकृतये प्राभावि काले कली। पूर्वाचार्य प्रसिद्ध समझते और उसे तत्वार्थसूत्रका अंग
येनाचार्ययमन्तभद्रयनिना नम्मै नमः मन्ततं । समझने तो पूज्यपाद अकलंक आदिक इसे अव्याम्यान
कृत्वा विवियते स्तवो भगवता देवागमम्त कृतिः ॥" रम्बनेके क र्यम शामिल न होते।
अर्थात जिन समन्तभदने इस कलिकालमे भयजीवोंक अब हमे यह विचारना है कि प्रा. विद्यानन्दयी उक्त. भावोको अकलंक करने के लिए सर्वपदार्थविप पक स्याहाद. श्रांकको सूत्रकारकृत माननेकी धारणाका क्या प्राधार है। समद्रके तीर्थको प्रकट किया उपके तरणका उपाय बताया यह तो विद्यानन्द जैसे प्राचार्यके लिए कम संभव है कि उनको नमस्कार करके भगवानके स्तवनरूप जो उन्हीकी व मी धारणा बिना किसी पूर्वाधार्यवाक्यके पालम्बनके दवागमम्नव नामकी कृति है उसका विवरण करता हूँ। बना लेते । मालूम होता है कि प्रा० विद्यानन्दने अष्टशतीके इसमें देवागमः स्तव' पद ध्यान देने योग्य हैं । इसके 'दंवागमेयातिमद्गल पुरस्परस्तव विषयपरमाप्तगुणातिशय- अनन्तर ही वे देवागमेन्यादि मंगलपुरस्परस्तवविषयपर. परीक्षामुपनिपनैव स्वयं " इस प्रारम्भिक अंशके माग्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिपतैव ... ' यह पंक्ति लिखते आधारये अपनी वह धारणा बनाई है। वे मंगल पुरम्पर हैं। इस पंक्तिमें भी अकलंकनेव वही बात कहते हैं कि