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________________ "मोक्षमार्गस्य नेतारम्” [ न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार काशी ] d. 101 DO .0001.000000 " ने जून ४२ के 'भास्कर' में इमी शीर्षकमे एक अपने विचार इसी लेखका उपसंहार करते समय आक्षेप- लेख लिया था। इसके पहिले न्यायकुमुदचद्र परिहारके रूप में प्रकट करूंगा। मेरी न तो वैसी भूमिका द्वि. भाग तथा प्रमेयकमलमानण्डकी प्रस्ता- या वृत्ति ही है और न ऐमा सहयोग ही मिला है, न वनामें समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र' उपशीर्षक इतना समय ही है जिसमे एसे लम्बोंका 'यथातथा' 288880 से 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इम मगलश्लोकके रूपमे उत्तर दूं। विषयमें अपना मत प्रक्ट कर चुका ह । हमारे सशोधकके नाते मै मर्वप्रथम पं० रामप्रसादजी शास्त्री इस अंशका प्रतिवाद श्रीन पं. गमप्रमादजी शास्त्री बबई द्वाग (जैन गजट, जुलाई) सुझाए गये उस मंशोधनको ने 'समन्तभद्रका समय' शीर्षक देकर 'जैनगजट' के है और माभार स्वीकार करता है जिसमें उन्होंने यह बताया है १६ जुलाई मन् ४२ के अंकोंमे तथा 'जैन बोधक' वर्ष ५८ कि-'तत्वार्थलाव नानिक पृ. १७४ में आये हुये सूत्र के २० अंकम किया है। श्री पं० जिनदामजी शास्त्री और सूत्रधार प.का वाय रानवार्तिक और अकलक न शोलापुरने भी 'जैन बोधक' वर्ष ५८ के २२, २३ अकोमे होकर तरवार्थसूत्र और उमास्वाते हैं। इसी तरह पं. इमका प्रतिवाद किया है। वयोवृद्ध साहित्यमेवी प. जिनदायकी शास्त्रीका (जैन बोधक वर्ष ५८ अंक २२ में) जुगलकिशोरजी मुगनारके महयोगमे 'अनेकान्त' के जुलाई यह लिखना भी एक हद तक प्रा मालम होता है कि४२ के अंकामे त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक देकर 'आचार्य 'वद्यानन्नने • यार्थशाकवार्तिक (पृ. २६) में एक लेख अपने अनुरूप भापामे चि० भाई दरबारीलालजी 'तत प्रमाणान्विनमोक्षमार्गप्रणायकः सर्वविदस्तदोष' न्यायाचार्यने भी लिखा है। मुझे भाईय इस बातका हुआ इत्यादि लिख कर 'मांक्षमार्गस्य नेनार भोकम घणित कि इस लेखके अन्तम मुग्तार मा० के महयोगके लिये तो प्राप्तका विवेचन किया है।' आभार प्रदर्शित किया गया है पर जिन पं० रामप्रसादजी पर मेरी तो यह अनुपपत्ति थी, जो अब भी कायम और पं. जिनदासजी शाम्री लेम्बोकी मामग्रीसे लंग्य है कि जिस प्रकार विद्यानन्द मान्यापद्धतिमे उत्थानवाश्य मप्राण हुआ है और जिनकी सामग्रीके पिष्टपेषण एव जोड कर तत्वार्थमत्रके प्रत्येक शब्दका व्यग्यान करते हैं पल्लवनमे इस लेखका कलेवर बड़ा है उनका नामोल्लेख उसके एक भी शब्दको नही होने उसी तरह वे इस भी नहीं किया गया है। अतः मै तो प. रामप्रसादजी श्लोकमे वर्णित प्राप्तको तत्वार्थमूत्रका श्राद्यवका मान कर नथा जिनदासजी शास्त्रीके लेखोंको मुख्यतः सामने रखकर जब प्रथम मत्रगी पीठिकाम उम्की मिद्धि करने हैं तब उसके उत्तग्णीय अश पर अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ। उन्हें यदि इस मगलमय शाक्को स्पष्टन मूत्रकार कृत इन लेखोंका उत्तर हो जाने पर अनेकान्त' के लेम्वमे कोई मानना इष्ट था तो वे इसका भी उधानवाक्य श्रादि देकर म्बाम महाका अनुरिष्ट उत्तरणीय भाग नही रहजाता व्याख्या भी अवश्य ही करते । अस्तु । है। हां, कुछ प्रमाद, अनभिज्ञता जैसे मुख्तारी शैलीके माधु शब्दोंकी दक्षिणा और कुछ छोटे मोटे आक्षेप अवश्य कुछ अनुपपत्तियाँ बच जाते हैं। जिनमें अपने पुराने सम्बन्धके नाते दक्षिणा थाचार्य विद्यानन्दक 'सत्रकार प्राह.' आदि अन्य नां मुझे स्वीकार कर ही लेनी चाहिये उसके बदले में उल्लेम्वाको मुख्याक मानकर यह मान भी लिया जाय तो मै शुभ भावना हो सकता है। शेषके विषयमे में कि विद्यानन्द इस श्लोकक ग्रकार कृत मानते नां भी
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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