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अनेकान्त
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[वर्ष ५
४ अकलंक ग्रन्थत्रयके 'प्राक्कथन' से- जैन निरूपणका तार्किक शैलीमें मेल बिटाने का काम
जैसा तैसा न था, जो कि अप लंकने किया। यही "भट्रारक अकलंकने अपनी विशाल और अनुपम
सबब है कि अकलंककी मौलिक कृतियाँ बहुत ही कति जतिक सस्कृतमें लिखी, जो विशेषावश्यक संक्षिप्त हैं किर भी वे इतनी अर्थज्ञान तथा सुविचाभाष्यका तरह तर्कशैलीकी होकर भी आगमिक ही रित हैं कि भागेके जैनन्यायका वे आधार बन गई है।" है। परन्तु जिनभद्रकी कृतियोंमें ऐमी कोई स्वतंत्र
प्रा० पृ०६-१० संस्कृत कृति नहीं है जैसी अकलंककी है। अकलंकने ----- आगमिक ग्रंथ राजवार्तिक लिख कर दिगम्बर साहित्य
"यह अकलंकदेव, स्वामी ममन्मभद्रके उज्ञ ।सद्धान्ती में एक प्रकारसे विशेषावश्यकके स्थानकी पूर्ति तो की,
के उपस्थाक, समर्थक, विवेचक और प्रमारक है। जन
मूलभूत तात्त्विक विचारोंका और तर्क-मनादांका स्वामी पर उनका ध्यान शीघ्र ही ऐसे प्रश्न पर गया जो जैन
समन्तभद्रने उद्बोधन या श्राावर्भाव किया उन्हीका भट्ट परम्पगके मामने जोरोंसे उपस्थित था। बौद्ध और
अकलंकदेवने अनेक नरहम अबृदण, विश्लेषण, मंचयन, ब्राह्मण प्रेमाणशास्त्रोंकी कक्षामें खड़ा रह सके ऐमा
ममुपस्थापन, मंकलन और प्रमारण आदि किया। न्याय-प्रमाणकी समग्रव्यवस्था वाला कोई जैन प्रमाणग्रंथ आवश्यक था। अकलंक जिनभद्रकी तरह पांच
हम तरह मह अकलकदेवने जैम समन्तभद्रोपज्ञ नय आदि आगमिक वस्तुओंकी केवल तार्किक चर्चा
श्रार्हतमतप्रकर्षक पदार्थोका परिस्फोट और विकाम किया करके ही चुप न रहे, उन्होंने उमी पंचज्ञान, मप्तनय
वैसे ही पुगतन-मिद्धान्त-प्रतिपादिन जैन पदार्थोंका भी, नई आदि प्रागमिक वस्तुका न्याय और प्रमाणशास्त्र
प्रमाण-परिभाषा और तर्क पद्धतिम, अद्घिाटन ओर रूपसे ऐसा विभाजन किया, ऐमा लक्षण प्रणयन किया,
'वचारोबोधन किया । जा कार्य श्वेताम्बर सम्प्रदायमे जिससे जैनन्याय और प्रमाण ग्रंथोंके स्वतत्र प्रकरणों
जिनभद्रगणी, मल्लवादी, गन्धहस्ती और हरिभद्रसूरिने की मांग पूरी हुई। उनके सामने वस्तु तो आगमिक
किया वही कार्य दिगम्बर संप्रदायम अनेक अंशाम अकेले थी ही, दृष्टि और तर्कका मार्ग भी सिद्धसेन तथा
भट्ट अकलंकदेवने किया ओर वह भी कही अधिक सुन्दर ममन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हवा ही था, फिर भी और उतम रूपसे किया। अतण्व दम दृष्टिम भट्ट अकलंकप्रवल दर्शनान्तरोंके विकसित विचारोंके साथ प्राचीन दव जैन-बाङ्मयाकाशके यथार्थ है। एक बहुत बड़े तेजस्वी
नक्षत्र थे । यद्यपि मंकुचित विचार के दृष्टिकोणम देखने पर *यह ग्रन्थ जिम सिंघी जैन ग्रन्थमालाम प्रकाशित हुआ है व सप्रदायम दिगम्बर दिखाई देते है और उम मप्रदायक उसके संचालक और प्रधान सम्पादक है श्री जिनविजय जीवनके व प्रबल बलवईक और प्राणपोषक प्राचार्य प्रतीत मुाना आप भी श्वेताम्बर जैनममाजके गण्यमान्य कोटिके होन है नयापि उदार दृष्टिस उनके जावनकाका सिहावविद्वानोम है और बड़े ही अध्ययनशील तथा विचारक है। लोकन करने पर, वे समग्र अातदर्शनकं प्रम्बर प्रातष्ठानक
आपने इस ग्रन्थके 'प्रास्ताविक' में जा विचार इस संबंधर्म और प्रचण्ड प्रचारक विदिन दोन है। अतएव ममुच्चय व्यक्त किये हैं वे भी पाटकोके जानने याग्य है, और वे जेनसंघकं लिये वे परम पूजनीय भार परमश्रय मानने इस प्रकार है :
योग्य युगप्रधान पुरुष है।"
पृ०१, २