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किरण ८-१]
राजवार्तिकादि कृतियोंपर पं० सुखलालजीके गवेषणापूर्णविचार
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है अकलंककी दृष्टिमें इसके अलावा अहिंसा-समभाव "सिद्धसेनने अपरोक्षत्वको प्रत्यक्षमात्रका साधाका जैनप्रकृतिसुलभ भाव भी निहित है । अतएव रण लक्षण बनाया । पर उसमें एक त्रुटि है जो किसी अकलंकने कह दिया कि किसी एक पक्षकी सिद्धि ही भी सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किकसे छिपी रह नहीं सकती। वह उसका जय है और दूसरे पक्षकी असिद्धि ही उसका यह है कि अगर प्रत्यक्षका लक्षण अपरोक्ष है तो पराजय है। अकलंकका यह सुनिश्चितमत है कि किसी
परोक्षका लक्षण क्या होगा। अगर यह कहा जाय एक पक्षकी सिद्धि दूसरे पक्षकी असिद्धिके बिना होही कि परोक्षका लक्षण प्रत्यक्षभिन्नत्व या अप्रत्यक्ष नहीं सकती। तव को सामान तो इसमे स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है। जान पड़ता है हुआ कि जहां एक की सिद्धि होगी वहाँ दूसरेकी
इस दोषको दूर करनेका तथा अपरोक्षत्वके स्वरूपको असिद्धि अनिवार है, और जिस पक्षकी मिद्धि हो
स्फुट करनेका प्रयत्न सर्वप्रथम भट्टारक अकलंकने उसी की जय । अतएक सिद्धि और अमिद्धि अथवा
किया। उन्होने बहुत ही प्राञ्जल शब्दों में कह दिया कि दूसरे शब्दोंमें जय और पराजय समव्याप्तिक हैं।
जो ज्ञान विशद हे वही प्रत्यक्ष है। उन्होंने इस वाक्य कोई पराजय जयशून्य नहीं और कोई जय पराजय
में साधारण लक्षण तो गर्भित किया ही पर साथी शन्य नहीं। धर्मकीर्तिकृत व्यवस्थाम अकलककी सूक्ष्म
उक्त अन्योन्याश्रय दोषको भी टाल दिया । क्यों कि अहिंसा प्रकृतिने एक त्रुटि देखली जान पड़ती है।
अब अपराक्ष पद ही निकल गया जो परोक्षत्वके वह यह कि पूर्वोक्त उदाहरणमें कर्तव्य पालन न करने
निर्वचनकी अपेक्षा रखता था। अकलंककी लाक्षमात्रसे अगर पतिवादीको पराजित समझा जाय तो
णिकताने केवल इतना ही नहीं किया पर साथ ही दुष्ट साधन प्रयोगमें सम्यक् माधक प्रयाग रूप
वैशद्यका स्फोट भी कर दिया। वह स्फाट भी ऐसा कर्तव्यका पालन न होनेसे वादा पराजित क्यों न
कि जिमस सांव्यवहारिक पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्षका ममझा जाय ? अगर धर्मकीर्ति वादीको पराजित नही
संग्रह हो। उन्होने कहा कि अनुमानादिकी अपेक्षा मानते तो फिर उन्हें प्रतिवादीको भी पराजित नहीं
विशेष प्रतिभास करना ही वैशय है। अकलंकका यह मानना चाहिए । इस तरह अकलकने पूर्वोक्त उदाहरण
माधारण लक्षण का प्रयत्न और स्फोट ही उत्तरवर्ती में केवल प्रतिवादीको पराजित मान लेने की व्यवस्था
मभी श्वेताम्बर-दिगम्बर ताकिकोंके प्रत्यक्ष लक्षण में को एकदेशीय एवं अन्यायमूलक मानकर पूणसमभाव
प्रतिबिम्बत हुआ। किसीने विशदके स्थानमें 'स्पष्ट' माम
पद रग्बा तो किमीने उसी पदको ही रखा। करना ही जय है। आर ऐमी सिद्धि में दूसरे पक्षका
आचार्य हेमचन्द्र जेसे अनेक स्थलोंमें अकलंकानिराकरण अवश्य गर्भित है। अकलंकोपज्ञ यह जय- नुगामी हैं, वैसे हा प्रत्यक्षके लक्षणके बारेमें भी पराजय व्यवस्थाका मागे अन्तिम है, क्योंकि इसके
अकलंकके ही अनुगामी हैं। यहां तक कि उन्होंने तो ऊपर किसी बोद्धाचार्यने या ब्राह्मण विद्वानोने आपत्ति
विशद पद और वैशटाका विवरण अकलंकके ममान नहीं उठाई। जैन परंपरामें जय-पराजय व्यवस्थाका
ही रग्या । अकलंककी परिभाषा इतनी बढ़मूल होगई यह एक ही मार्ग प्रचलित है, जिसका स्वीकार सभी कि अन्तिम तार्किक उपाध्याय यशोविजयजीने भी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकोंन किया है और जिसके प्रत्यक्षके लक्षण में उमीका आश्रय किया।"टि०पृ०१३५ समर्थनमे विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि ने
"भट्टारक अकलंकने उम मिद्धमेनीय लक्षण बड़े विस्तारसे पूर्वकालीन और ममकालीन मतान्तरो प्र
प्रणयन मात्र में ही मंतोप न माना। पर माथ ही बौद्ध का निरास भी किया है। प्राचार्य हेमचन्त भी इस
नार्किकोंकी तरह वैदिक परम्परामम्मत अनुमानके विपयमें भट्टारक अकलंकके ही अनुगामी हैं।"
भेद-प्रभेदोंके ग्वण्डनका मूत्रपात भी म्पष्ट किया, जिसे
विद्यानन्द आदि उत्तरवर्ती दिगम्बरीय तार्किकोंने टि.पृ० १२, १२३ विस्तृत व पवित किया।" टि० पृ० १४०