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अनेकान्त
[वर्ष५
- ०८
प्रमिद्ध स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इन शब्दों में शब्दशः स्थान दिया।" टि० पृ०६६ की सार्थकता भी सिद्ध होजाय । यहा कारण है कि "अकलंकोपा प्रत्यभिज्ञाकी यह व्यवस्था जो अकल का यह परोक्ष प्रमाण के पंच प्रकार तथा उनके स्वरूपमें जयन्तका मानसज्ञानकी कल्पनाक समान लक्षण-कथनका प्रयत्न अद्यापि सकल जैन तार्किक है वह सभी जैन तार्किकों के द्वारा निर्विवादरूपसे मान मान्य रहा। आ० हेमचन्द भी अपनी मीमांसामें नाम परीक्षक उन्हीं भेदोंको मानकर निरूपण करते हैं।
"जब जैन परम्परामें तार्किक पद्धतिसे प्रमाणके टि० प्र०२२, २३ १२ भेद और लक्षण आदिकी व्यवस्था होने लगी तब am
ना होने की " यदापि त्यक्षक लक्षणमें विशद या सुट सम्भवतः सर्वप्रथम अकाँकने ही तर्कका स्वरूप, शब्दका प्रयाग करनेवाल जैनतार्किको में सबसे पहिले विषय पये
विषय, उपयोग आदि स्थिर किया, जिसका अनुसरण अफल ही जान पड़ते हैं तथापि इस शब्दका मूल पिछले मभी जैन तार्किकों ने किया है।......चिगयात बाद्धतग्रन्थामे है क्यो.क अकलङ्कके पूर्ववर्ती धर्म
आये परम्पराके अति परिचित उह या तक शब्दको काति आदि बाद्धताकिकोन इसका प्रयोग प्रत्यक्ष स्वरूप
लेकर ही अकलंकने परोक्षणप्रमाणके एक भेदरूपसे निरूपणमें किया है।" टि० पृ० २६, २७
नर्क प्रमाण स्थिर किया।" टि० पृ०७७ ___" यद्यपि प्रा. हमचन्द्र वादी देवसूरिक समका
"अतएव जैन परम्परागके सामने निग्रह स्थानका लीन और उनके प्रसिद्ध ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर के द्रष्टा हूँ
म्वतन्त्रभावमे निरूपण करनका ही प्रश्न रहा जिसको एवं जिनभद्र, हरिभद्र आर देवसूर तोनाक अनुगामी
भट्टारक अकलंकने सुलझाया। उन्होने निग्रहस्थानका भी है, तथापि वे धारणाक लक्षणसूत्रम तथा उसंक
लक्षण स्वतन्त्र भावमे ही रचा और उसकी व्यवस्था व्याख्यानम दिगम्बराचार्य अकलंक ार विद्यानन्द
बांधी, जिसका अक्षरशः अनुसरण उत्तरवर्ती सभी श्रादिका शब्दशः अनुसरण करते है। " टि०पृ०४८ दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकोंने किया है।......
"प्रमाणलक्षण-मबंधी परमतोका प्रधानरूपस खंडन जहाँ तक देखने में आया है उसमे मालूम होता है कि करनेवाला जैनताकिकाम सर्वप्रथम अकलङ्कहा है। धर्मकीर्तिके लक्षगका मंक्षेपमें म्बतन्त्र ग्यण्डन करने उत्तरवनी दिगम्बर-श्वेताम्बर सभा ताकिकाने अकलङ्क- वाले मर्वप्रथम अकलंक हैं और विस्तृत खण्डन करने अवलाम्बत खण्डन मागेका अपनाकर अपन-अपन वाले विद्यानन्द और तदुपजीवी प्रभाचन्द्र हैं।" प्रमाणविषयक लक्षण ग्रंथोम बाद्ध, वैदिक-सम्मत
टि. पृ० १२५ लक्षणोका विस्तारक साथ खण्डन किया ह ।'
"इस तरह धर्मकीर्तिने जय-पराजयकी ब्राह्मणटि.पृ०४८-४६
सम्मत व्यवस्था में संशोधन किया। पर उन्होंने जो "अनेकान्तवादके उपर प्रतिवादियोके द्वारा दिय
असाधनाङ्गवचन तथा अदोपोदावन द्वागजय-पराजय गए दोषोंका उद्धार करने वाल जैनाचार्योमे व्यवस्थित
की व्यवस्था की इसमें इतनी जटिलता और दुरूहता श्रार विश्लपणपूर्वक उन दापोंके निवारण करने
आ गई कि अनेक प्रसङ्गों में यह सरलतासे निर्णय वाले सबस प्रथम अकलंक भार हरिभद्र हो जान
करना ही असम्भव हो गया कि अमाधनाङ्गवचन तथा पड़ते है।" टि० पृ० ६४
अदोपोद्भावन है या नहीं। इस जटिलता और दुरूहता "जसे अनेक विषयोंम श्रा० हेम न्द्र अकलंक में बचन एवं सरलतासे निर्णय करने की दृष्टिसे का त्रास अनुसरण करते हैं वैसे ही इस चर्चामें भी भट्रारक श्रालंकने धर्मकीर्ति कृत जय-पराजय व्यवस्था उन्होंने मध्यवर्ती फलोंको सापेक्षभावस प्रमाण और का भीमंशोधन किया। अकलंकके संशोधनमें धर्मकीर्तिफल कहने वाली अकलंक स्थापित जैन शैलीको सूत्र सम्मत सत्यका तत्त्व तो निहित है ही, पर जान पड़ता