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किरण ८-६]
राजवार्तिकादि कृतियोंपर प० सुखलालजीके गवेषणा-पूर्ण विचार
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ल कन कहीं 'अनधि
गतार्थक और अनि
टे छोटे अनेक प्रकरण
__ "माणिक्यनन्दी अकलङ्कके ही विचार-दोहनमे प्रमाणमीमांसाके टिप्पणोंसेसे सूत्रोका निर्माण करते हैं। विद्यानन्द अकलंकक “जैनन्यायके प्रस्थापक अकलङ्कने कहीं 'अनधिही सक्तोपर या तो भाष्य रचते हैं या पद्यवातिक तार्थक और अविवादिदोनो विशेषणोंका प्रवेश बनाते हैं या दमरे छोटे छोटे अनेक प्रकरण बनाते किया और कहीं 'स्वपरावभासक' विशेषणका भी है। अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र और वादिराज जैम तो समर्थन किया है।" 120 पृ०६, ७ अकलंकके संक्षिप्त सूक्तोपर इतने बड़े और विशद
"क्षमाश्रमण ( जिनभद्र) जाने यह सब कुछ नथा जटिल भाष्य व विवरण कर डालते हैं कि जिससे किया फिर भी उन्होंने कही यह नहीं बतलाया नक तकम विकासत दशनान्तराय विचार-परपगा कि जैन प्रक्रिया परोक्षप्रमाणके इतने भेद मानती है का एक तरहसे जन वाङ्मयमें समावेश हो जाता है। दूसरी तरफ श्वेताम्वर परम्गक आचार्य भी उसी
। सा इस तरह अभी तक जनपरंपरामें आगमिक ज्ञानअकलंक स्थापित प्रणालीकी ओर झुकते हैं । हरिभद्र
__ चचाके साथ ही साथ, पर कुछ प्रधानतासे प्रमाणजैसे आगमिक और तार्किक ग्रन्थकारने नो मिद्धमेन
मोदी और ममन्तभद्र आदि के मार्गका प्रधानतय, अनेकान्त
प्रनिवादियोकी ओरम यह प्रभचार बार आता ही था जयपताका आदिम अनुसरण किया, पर धीरे-धीरे
कि जनप्रक्रिया अगर अनुमान, आगम भा.द दर्शनान्याय-प्रमाणविषयक म्वतन्त्र ग्रन्थ-प्रणयनकी प्रवृत्ति
न्तर प्रसिद्ध प्रमाणोको परोक्षप्रमाणरूप स्वीकार करती भी श्वेताम्बर-परंपरामें शुरू हुई । श्वेताम्बराचार्य
है तो उसे यह म्पष्ट करना आवश्यक है कि वह परोक्ष मिद्धर्मनने न्यायावतार ग्चा था। पर वह निरा प्रारंभ
प्रमाणके कितने भेद मानना है, और हरएक भेदका मात्र था । अक्लंकने जैनन्यायकी सारी व्यवस्था
सुनिश्चित लक्षण क्या है ? जहां तक देखा है उसके स्थिर कर दी।"
आधारसे निःसंदेह कहा जा सकता है कि उक्त प्रश्र
प्र० पृ० १५ का जवाब मबम पहिले भट्टारक अकलङ्कने दिया है "धर्मकीर्तिके प्रमागवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय और वह बहुत ही स्पष्ट तथा सुनिश्चित है। अकलङ्कने आदिमे बल पाकर तीक्ष्ण दृष्टि अकलंकने जैनन्याय अपनी लघीयत्रयीम बनलाया कि परोक्ष प्रमाण के का विशेष निश्चय-व्यवस्थापन तथा जेंन प्रमाणोका अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, स्मरगा, नक. और आगम ऐसे मंग्रह अर्थान विभाग, लक्षण आदि द्वारा निरूपण पाँच भेद हैं। उन्होंने इन भेदोंका लक्षण भी स्पष्ट अनक तरहसे कर दिया था । अकलंकने सर्वज्ञत्व, बाँध दिया। हम देखते हैं कि अकलङ्कक इम स्पष्टीजीवत्व श्रादिकी सिद्धिक द्वारा धर्मकीति जैसे प्राज्ञ करणने जनप्रक्रियाम आगमिक श्रार तार्किक जानबौद्धोंको जवाब भी दिया था। सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्द चर्चा में बराबर खड़ी होनेवाली सब समस्याको ने प्राप्त की, पत्रकी और प्रमाणोकी परीक्षा द्वाग धर्म- मुलझा दिया । इमका फल यह हुआ कि अकलङ्कक कीर्तिकी तथा शान्तरक्षितकी विविध परीक्षाओका जैन उत्तरवर्ती दिगम्बर - श्वेताम्बर मभी नाकिक उसी परंपरामें सूत्रपात कर ही दिया था। दिगम्बर परंपरामे अलङ्गदर्शिन राम्ते पर ही चलने लगे और उन्ही के अकलंकके संक्षिा पर गहन सूक्तोंपर उनके अनुगामी शब्दोंको एक या दमरे कपस लेकर यत्र तत्र विकसित अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द और वादिराज कर अपने अपने छोटे र बृहत्काय ग्रन्थोको लिम्बने जैसे विशारद तथा पुरुषार्थी तार्किकाने विस्तृत व गहन लग गये। अकत कने पक्षप्रमाणके पाँच भेद क ते भाष्य-विवरण आदि रचकर जैन न्यायशास्त्रको अति- समय यह ध्यान अवश्य रक्खा है कि जिससे उमाममृद्ध बनाने का सिलसिला भी जारी कर ही दिया स्वाति पूर्वाचार्योंका ममन्वय विरुद्ध न होजाय और था।" प्र. पृ० १६
आगम तथा नियुक्ति आनिमे मतिज्ञान के पर्यायरुपसे