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अनेकान्त
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ही कहता है । 'अनेकान्त' राजवार्तिककी प्रत्येक चर्चा अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें है, को चाबी है । अपने समय पर्यन्त भिन्न भिन्न संप्रदायों वह सिद्धसेनीय वृत्तिमे नही ।" ५० पृ० ६५ के विद्वानोंने 'अनेकान्त' पर जो आप किये र २ प्रमाणमीमांसाकी प्रस्तावनासेअनेकान्तवादकी जो त्रुटियाँ बतलाई उन सबका निर- “उसी परिस्थितिमेसे अकलङ्क जैसे धुरंधर व्यसन करने और 'अनेकान्त' का वास्तविक स्वरूप वस्थापकका जन्म हश्रा । संभवतः अकलङ्कने ही बतलानक लिये ही अफलंकने प्रतिष्ठित तत्वार्थसूत्रके पहिले-पहल मोचा कि जैन परंपराके ज्ञान, ज्ञेय,
आधार पर सिद्धलक्षणवाली सर्वार्थसिद्धिका आश्रय ज्ञाता आदि सभी पदार्थों का निरूपण तार्किक शैलीसे लेकर अपने राजवातिककी भव्य इमारत खड़ी की है।" संस्कृत भाषामें वैसा ही शास्त्रबद्ध करना आवश्यक है
प० पृ०६१ जसा ब्राह्मण और बौद्ध परंपराक साहित्यम बहुत " तत्वार्थ श्लोकवार्तिकमें जितना ओर जैमा पहिलमे होगया हे और जिसका अध्ययन अनिवार्य सबल मीमांसक दर्शनका खंडन है वैसा तत्वार्थसूत्रकी रूपस जैन तार्किक करने लगे हैं। इस विचारसे अकदूसरी किसी भी टीकामें नहीं । तत्वार्थ श्लोकवार्तिकमें लकने द्विमुखी प्रवृत्ति शुरू की । एक ओर तो बाद्ध सर्वार्थसिद्धि तथा राजवातिको चर्चित हुए कोई भी और ब्राह्मण परंपराक महत्वपूर्ण ग्रंथोंका सूक्ष्म परिमुख्य विपय छूटे नही; उलटा बहुतसे स्थानोपर तो शीलन और दसरी और समस्त जैन मन्तव्योंका सर्वार्थसिद्धि और राजवातिककी अपेक्षा श्लोकवातिक तार्किक विश्लेपण । केवल परमनोंका निराम करने ही की चर्चा बढ़ जाती है। कितनी ही बातोंकी चर्चा तो से अकलङ्कका उद्देश्य सिद्ध हो नहीं सकता था। अतश्लोकवार्तिकमें बिलकुल अपूर्व ही है। राजवातिकमें एव दर्शनान्तरीय शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलनमे से और दार्शनिक अभ्यासकी विशालता है तो श्लोकवातिकमें जैनमतके तलस्पर्शी ज्ञानसे उन्होंने छोटे-छोटे पर इस विशालताके साथ सूक्ष्मताका तत्व भरा हुआ समस्त जैनतर्क-प्रमारपशाम्के आधारस्तम्भभृत अनेक दृष्टिगोचर होता है। समग्र जैनवाङमयमें जो थोड़ी न्याय-प्रमाण-विषयक प्रकरण रचे जो दिङ्नाग और बहुत कृतियां महत्व रखती हैं उनमेंकी दो कृतियाँ खासकर धर्मकार्ति जैसे बौद्ध तार्किको के तथा उद्योतकर 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी हैं । तत्वार्थसूत्र कुमारिल आदि जैस ब्राह्मगा तार्किको के प्रभावसे भरे पर उपलब्ध वेताम्बरीय साहित्यमें से एक भी ग्रन्थ हए होने पर भी जैन मन्तव्योंकी बिलकुल नये मिरे राजवार्तिक या श्लोकवातिककी तुलना कर सके, ऐसा और म्वतन्त्र-भावस स्थापना करते हैं । अकलङ्कने दिखलाई नहीं देता।” ५० पृ०६२
न्याय-प्रमाणशास्त्रका जैन परंपरामें जो प्राथमिक "प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक निर्माण किया, जो परिभाषाये की, जो लक्षण व प्रीअभ्यास करनेके पर्याप्त साधन हैं; परन्तु इनमेंसे
क्षण किया, जो प्रमाण प्रमेय आदिका वर्गीकरण किया 'राजवार्तिक' गद्य, सरल और विस्तृत होनेसे तत्वार्थ और परार्थानुमान तथा वादकथा आदि परमत-सिद्ध के संपूर्ण टीकाग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूरी करता वस्तुओके सम्बन्धमे जो जैन प्रणाली स्थिर की, मंक्षेप है। ये दो वार्तिक यदि नही होते तो दसवीं शताब्दी मे अब तकमे जैनपरम्पगमे नही पर अन्य-परंपराओं तकके दिगम्बरीय साहित्यमें जो विशिष्टता आई है में प्रसिद्ध ऐसे तर्कशास्त्र अनेक पदार्थोको जैन-दृष्टि
और इसकी जो प्रतिष्ठा बंधी है वह निश्चयसे अधूरी से जैनपरंपरामे जो मात्मीभाव किया तथा आगम-सिद्ध ही रहती।" प० पृ०६३
अपने मतव्योंको जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने “सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकके साथ सिद्धसे- योग्य बनाया, वह सब उनके छोटे-छोटे ग्रन्थों में नीय वृत्तिकी तुलना करनेसे इतनातो स्पष्ट जान पड़ता विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्वका तथा न्यायहै कि जो भाषाका प्रासाद, रचनाको विशदता और प्रमाण स्थापना युगका द्योतक है।" प्र० पृ० १४