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________________ श्री अकलंक और विद्यानन्दकी राजवार्तिकादि कृतियोंपर पं० सुखलालजीके गवेषणा-पूर्ण विचार -+-+--- - -- - - - - पं. मुम्बलालजी मघवी श्वताम्बर जैनममाजके गण्यमान्य चोटीक विद्वानाम हैं। श्राप बड़े ही अध्ययन-शील व्यक्ति है-तुलनात्मक अध्ययन प्रापका बढ़ा चदा है। श्राग्ने जेन-जेनंतर दर्शनीका ग्बब तुलनात्मक अभ्याम किया है। बसयो वर्षमै श्रीअकलक श्रोर विद्यानन्द प्राचार्योक तत्त्वार्थ-राजवानिक और तत्त्वार्थ-श्लोकवातिकादि ग्रन्थ श्रापक अध्ययनवा खाम विषय बने हुए हैं । अापने इन प्राचार्योक ग्रन्थोकी दुसरे दिगम्बर माहित्य, श्वनाम्बर साहित्य और अजेंन दर्शनमादित्य के साथ जो तुलना की है तो उमपरसे इन ग्रन्यांका पहुन कुछ महत्व श्रापपर प्रस्फुटित हुया है और उमने आपके हृदयपर अमिट हाप जमाई है । इसीमे श्राप इन प्रन्यो नथा ग्रन्यकार के मक्तकण्ठम प्रशमक हैं और बगबर इनकी गुण-गरिमाको विद्वानों पर ख्यापित करते रहते है अनेक बार इनके विषयम आपने अपने गपगापूर्ण विनार बिना किमी मंकोचके प्रकट किये हैं । अापके ये विचार अनेक ग्रन्थों-प्रन्यप्रस्तावनायो, प्राक्कथनो अोर टप्पगियो अादिके विभिन्न पृष्ठ में बिग्बर पड़े हैं। पदत समय मैं अक्मर उनपर मार्क कर दिया करता था। बहुत दिनाम मेग इच्छा थी कि उनका एकत्र मंग्रह करके उन्हें 'अनेकान्न' के पाठकोके भामने रमवा जाय, जमसे नई मालूमातके माय माथ श्राधकाश पाटकोक जानकी वृद्धि हो मके, परन्तु अनवकाशादिके यश अभी तक मरी वह इच्छा पूरी नही हो रही थी। अाज उम इच्छाकी श्राशिक पृतिक रूपमे पंडितजीके ऐसे विचागका एक मंग्रह उनके १ तत्त्वार्थ-मृत्र मविवेचनाकी 'पारचय' नामक प्रस्तावना, २ प्रमाणमीमामाकी 'प्रस्तावना', ३ प्रमाण मीमामाके भाषा टिप्पणिअोर ४ अकलंक ग्रन्यत्रयके 'प्राक्क यन' परसे उदधृत करके अनेकान्त-पाठकोंके मामने ग्बग्या जाना है। श्राशा हे टमपा में पाठकाका कितनी ही नई बात जाननेको मिलेगी, नई नई बाने खोजनेकी और विद्वानांकी प्रवृत्ति होगी, उनके हृदयपर रन प्रन्याय। महत्व मावशप रूपसं अंकित होगा और दिगम्बर श्रीमानीको दम बातकी प्रेरणा मिलगी कि वे अपने इन अद्वितीय ग्रन्थरत्नाकं उत्तमानम मम्बरण प्रकाशित कराकर इनके प्रति अपने कर्तव्यका पालन कर, । मम विद्वत्ममाजकी डाष्टका अपना यार अाकर्षित करने में समर्थ हो मकं । गजवानिक लोकवार्तिक प्रादि ग्रन्थोके जी मस्करण अभी तक प्रकाशित हुए हैं व बहुत ही थडक्लाम, श्रीहान, श्राप शन्य, त्रुटियाम परिपूर्ण और अशुद्धियों में भर हुए है । इमाम जन-जनंतर विद्वानांकी प्रवृत्ति उनके पठन-पाठनकी ओर बहुत ही कम होनी है। उनम मंस्करणोका प्रकाशित करना जहाँ भांक और माहित्य स्वाका एक अंग है वहा वह लोकोपकारका भी बहुत बड़ा माधन है, अत: इमकी और ममा जके श्रीमानाका शीघ्र ही • यान जाना चाहिये । -सम्पादक ] . रिचयम अभ्यामी हैं और इन्होंने नत्वार्थ पर 'श्लोकवार्तिक' “य (भट्ट अकलङ्क) जैनन्याय-प्रस्थापक विशिष्ट नामकी पाबद्ध विम्तन व्याख्या लिवकर कुमारिल ..म प्रसिद्ध मीमांसक प्रन्थकागेकी म्पर्द्धा की है और गण्यमान्य विज्ञानोमेस एक हैं। इनकी कितनी ही जैननर्शन पर किये गये मीमांसकों के प्रचण्ड आक्रमण कृतियाँ' उपलब्ध हैं, जो हरएक जैनन्यायके अभ्यासी का मबल उत्तर दिया है।" ५० पृ०६० के लिये महत्वकी हैं।" प० पृ०५६ "मर्वार्थमिद्धिमें जो दार्शनिक अभ्यास नजर "य (विद्यानन्द ) भारतीय दर्शनों के विशिष्ट आता है उसकी अपेक्षा गजवानिकका दार्शनिक १ नत्त्वार्थगजवानिक, अपशनी, लधीयत्रय, न्यायविनिश्चय अभ्याम बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्तिकका मिद्धिविानश्चय, प्रमागर्मग्रह यादि । फुटनोटकी एक ध्रुवमंत्र यह है कि उसे जिस बातपर जो कुछ मचनानुमार) कहना होता है उस वह 'अनेकान्त' का प्राश्रय लेकर
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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