________________
२७४
अनेकान्त
[ वष ५
नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपतिमिद्धेः। न तद्विरुद्धं बहिरंतरग-निमित्त-नमित्तिक-योगतस्ते।३।
यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होनेसे वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहीं-अन्य है, इस प्रकारकी प्रतीनिकी मिद्विमे वस्तुतत्त्व नित्य नहीं--अनित्य है। वस्तुतत्वका नित्य और अनिय दोनो रुप होना तुम्हारे मतमे विरुद्ध नहीं है: क्योंकि वह बहिरंग निमित्त-सहकारी कारण, अन्तरंग निमित्त--उपादान कारण, और नै मत्तिक्के--निमित्तोस उत्पन्न होने वाले कार्यके सम्बन्धको लिये हुए है---द्रव्यस्वरूप अन्तरंग कारणके सम्बन्धकी अपेक्षा निग्य है और क्षेत्रादिरूप बाह्य कारण तथा परिणाम-पर्यायरूप कार्यकी अपेक्षा श्रनिग्य है।' अनेकमेक च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । आकांक्षिपः स्यादिनि वै निपातोगुणणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः।४।
‘पदका वाच्य-शब्दका अभिधेय-प्रकृति-स्वभाव हो - एक और अनेक दोनों रूप है--समान्य और विशेषमै अथवा द्रव्य और पर्यायमे अभेद-विवक्षा होने पर एकरूप है और भेद-विवक्षाके होने पर अनेकरूप है'वृक्षा.' इस पदज्ञानकी तरह । अर्थात जिस प्रकार 'वृक्षाः' यह एक व्याकरण-सिद्ध बहुवचनान्त पद है, इससे जहाँ वृत्ताव मामान्यका बोध होता है वहाँ वृक्षविशेषांका भी बोध होता है। वृक्षन वृक्षपना अथवा वृक्ष जातिकी अपेक्षा इसका वाच्य एक है और वृक्ष विशेषकी--श्राम, श्रानार, शीशम, जामुन श्रादिकी अपेक्षा इसका वाच्य अनेक है; क्योंकि कोई भी वृक्ष हो उसमे सामान्य और विशेषके दोनों धर्म रहते हैं, उनमेसे जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय वह धर्म मुख्य होता है और दूसरा गौण, परन्तु जो धर्म गौण होता है वह उस विवक्षाके समय कहीं चला नही जाता- उसी वृक्षवस्तुम रहता है, कालान्तरमे वह भी मुख्य हो सकता है। जैसे 'श्राम्राः' कहने पर जब 'अाम्रत्व' धर्म मुग्व्य होर विवक्षित होता है तब 'वृक्षव' नामका सामान्यधर्म उससे अलग नहीं हो जाता--यह भी उसी में रहता है। और जब 'अाम्रा' पद मे पाम्रय सामान्यम्पमे विक्षित होता है तब अाम्रके विशेष देशी, कलमी, लगडा, माल्दा, फज़ली आदि धर्म गौण (अविक्षन) होते हैं और उमी अाम्र पदमे रहते हैं। यही हालत द्रव्य और पर्यायकी विवक्षा
विवक्षाकी होती है। एक ही वृक्ष द्रव्य-सामान्यकी अपेक्षा एकरूप है तो वही अंकुगदि पर्यायांकी अपेक्षा अनेकरूप है । दोनोमे जिम समय जो विवक्षित होता है वह मुख्य और दूसरा गौण कहलाता है। इस तरह प्रत्येक पदका वाच्य एक श्रीर अनेक दोनो ही होते हैं।
(यदि पद-शब्दका वाय एक श्रीर अनेक दोनों हां तो 'अस्ति' कहने पर 'नास्तन्व' के भी बांधका प्रसग पानेमे दसरे पद 'नास्ति' का प्रयोग निरर्थक ठहरेगा, अथवा स्वरूपकी तरह पररूपमे भी अस्तित्व कहना होगा। इसी तरह 'नास्ति' कहने पर अस्तित्व के भी बोधका प्रसंग पाएगा. दूसरे पदका प्रयोग निरर्थक ठहरेगा अथवा पररूपकी तरह स्वरूपसे भी नास्तित्व कहना होगा। इस प्रकारकी शंकाका समाधान यह है कि--) अनेकान्नामक बस्नुके अस्तित्वादि किमी एक धर्मका प्रतिपादन क ने पर उस समय गाणभृत नास्तिवादि दूसरे धर्मके प्रतिपादनमे जिपकी आकांक्षा रहती है ऐसे पाकाती-पापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका 'स्यान यह निपात---'स्यान' शब्दका साथम प्रयोग---गौणकी अपेक्षा न रखने वाले नियममे--पर्वधा एकान्त मनमें—निश्चितरूपमे बाधक होता है--उम सर्वथाके नियमको चरितार्थ नही होने देता जो स्वरुपकी तरह परम्पके भी अस्तित्वका और पररूपकी तरह स्वरूपके भी नास्तिवका विधान करता है (और इस लिये यहाँ उक प्रकारकी शकाको कोई स्थान नहीं रहता)। गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्य जिनम्य ते त्वद्विपतामपध्यम। ततोऽभिवन्द्यंजगदीश्वराणाममाऽपि साधौम्तव पादपद्मम
'हे सुविधि जिन ' श्रापका यह 'स्यात' पदरूपसे प्रतीयमान नाक्य मुख्य और गौया के श्राशयको लिये हुए है--- विविक्षित और अविक्षित टोनी ही धर्म इसके वाच्य हैं-अभिधेय हैं । प्रापये--आपके अनेकान्त मतमे--द्वेष रखने वाले सर्वथा एकान्तवादियों के लिये यह वाक्य अपथ्ण रूपसे अनिष्ठ है-उनकी मैद्धान्तिक प्रकृति के विरुद्ध है, क्यों कि दोनों धर्मोंका एकान्त स्वीकार करनग्ये उनके यहां विरोध प्राता है। कि आपने म मातिशय तत्वका प्रणयन किया है इस लिये हे साधो। आपके चरण कमल जगदीश्वरी-इन्द-चक्रवात के द्वारा वन्दनीय है, और मेरे भी द्वारा वन्दनीय है।