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________________ * ॐ अहम् * स्ततत्त्व-सचातक श्व तत्त्व-प्रकाशक % नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ ___ वर्ष ५ किरा ८६ । वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मग्माया ज़िला महारनपुर भादपद अाश्विन वीरनिवाण सं० २४६८. विक्रम मं0 TERE मतम्बर-अक्लयर समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने श्री सुविधि-जिन-स्तोत्र एकान्तदष्टि-प्रनिधितचं प्रमाणमिद्ध नदत-बभावं त्वया प्रगीत मुविधबधान नैतत्ममालाढ पदं त्वदन्यः ।। '(शोभन विधि-विधानके प्रतिपादन : ( अन्वर्थ-संज्ञाके धारक) ह मुविधि (पदन्त ) जिन । आपने अपने ज्ञाननेजमे उस प्रमाण-सिद्ध तत्वका प्रणयन किया है जो सत-श्रमन श्रादिम्प विवक्षिताडाववक्षिन म्वभावका लिये हुए हैं और एकान्तदृष्टिका प्रनिषेधक है-अनेकान्ना-मक होने में किसीकी भी इस एकान्तमान्यनाको स्वीकार नहीं करता कि वस्तु तन्व सर्वथा (म्बरूप और प रूप दानाप ही) मन (विधि) श्रादि रूप है। यह ममालंद पद-सम्यक अनुभून नश्वका प्रतिपादक 'नदनम्वभाव जैसा पद - श्राप भिन्न मत रखने वाले दूसरे मत प्रयत का द्वारा प्रणीत नही हुन्मा है। नदेव च म्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतोतेस्तव तत्कथंचित् । नात्यन्तमन्यन्त्रमनन्यना च विधेनि पंधम्य च शन्यदो पाता। (हे मुविधि जिन ) आपका वह तत्व कथचित नद्रप (माप है और कचित नहप नहीं (असद प) है; क्योकि (मरूप-परम्पकी अपेक्षा उसके द्वारा) वैसी ही मत अमट पकी प्रतीत होती है। म्वरूपादि चतुष्ट रूप विधि श्रीर पररादि-चतुष्टयरूप निषेधके परम्पग्मे अश्यन्न (सर्वथा ) भिन्न ना नथा अभिन्नता नहीं है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता मानने पर शून्य दौर श्राता है--अविनाभाव सम्बन्धके कारण विधि श्रीर निषेध दोनोंम किमीका भी तब अस्तित्व बन नही सकता संकर दोषके भी श्रा उपस्थित होनये पदार्थाकी कोई व्यवस्था नहीं रहती, और इसलिये बम्न तत्व लोपका प्रसंग श्रा जाता है।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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