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________________ ७८ किन्तु पृष्ठ २६७ को छोड़कर, जिसपर टिप्पणीके कुछ दर्शन होते हैं, शेष समूचे ग्रन्थ में टिप्पणी आदि नामatest भी दिखाई नही देती । इससे स्पष्ट है कि ग्रंथ के इस उत्तरभागके सम्णदन में जैसा चाहिये था वैसा परिश्रम नहीं किया गया । अस्तु । यह ग्रंथ मेरे अध्ययनका स्वाम विषय रहा है और मुझे इसके उक्त संस्करणकी अशुद्धियों और त्रुटियोंसे बहुत ही पाला पड़ा है । साभाग्यका विषय है कि आज से कोई ३-४ वर्ष पूर्व मुझे, दि० जैन बड़ा मंदिर मुहल्ला सरावगी अजमेर के अध्यक्ष भट्टारक श्री हर्षकीर्ति महाराजकी कृपा से इस ग्रंथकी एक अतिशयशुद्ध प्रति मिली, जो कटिन शब्दों को टिप्पणियोस भी अलंकृत है, स्थूलाक्षरों में ४०० पत्रों पर लिखी हुई है और पूर्ण तथा श्री हालत है । यह प्रति विक्रम संवत १८५४ के तपसि माम में गंगाविष्णु नामके किसी विद्वान द्वारा । लिखी गई है; जैसा कि इसकी लेखकप्रशस्तिक निम्न पापरमे प्रकट है : पंक्ति अशुद्ध पाठ १ विधानामन्त्रेषु १२ सालवलनेषु वर्षे वेद-शरेभ- शीतगुमिते मासे तपस्याये तिथ्यां तत्विषियत वे जिनाधीशिनाम् । गंगाविष्णुरिति प्रथामधिगतेनाभिख्यया निर्मिता (ग्रन्थस्या) स्य लिपिः समातिमगद् गुर्वक पद्मालिना पृष्ठ २४४ १३ दुग्रत्व १७ भवदुःख १८ विदन्तोऽपि २० सहाभिनिवेशस्य २१ वितर्कयतः शुद्ध पाठ विधानाऽमंत्रपु शालवलनेषु दुर्गव ३ दवरु १८ या दर्शय वस १६ धर्मे म्थीयानां मुख्यानि विलोकिठ [ वर्ष ५ इस ग्रंथप्रतिको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई मैं उसी समय इसपरसे संशोधन विषयक नोटम ले लिये थे । हालमें, मेरी योजना वीरमेवामन्दिर में होनेपर, जब मैंने सम्पादक 'अनेकान्त' को अपने वे नोट्स दिखलाये तो उन्हें संशोधन बहुत लम्बा चौड़ा होनेपर भी यह उचित जान पड़ा कि उसे 'अनेकान्त' के इस नववर्षाङ्कमे ही प्रकाशित कर दिया जाय, जिस से बहुतोका भला हो र विद्वानोकी उलभी हुई गुत्थियॉ सुलके । अतः सम्पादकजी की सूचनानुसार श्रश्राम क्रम और पृष्ठादि-क्रम से ग्रंथका जो संशोधन तय्यार किया गया है उसे अनेकान्तके विज्ञ पाठकोक सामने नीचे रक्ग्वा जाता है। आशा है विद्वज्जन इम से यथेष्ट लाभ उठाएँगे और अपनी-अपनी ग्रंथप्रतियो को शुद्ध करके पढ़नेका आनन्द लेगे ! इसके सिवाय, उत्तर खण्डका मिलना आउट आफ प्रिस्ट होजानेसे वैसे भी कटिन हो गया है, उसके दूसरे संस्करण की जरूरत है, जो नई शलीम तुलनात्मक टिप्पणियो तथा उपयोगी परिशिष्टां श्रादिके साथ सुसम्पादिन होकर प्रकाशित होना चाहिये, जिससे ग्रंथका गौरव बढ़ सके। ऐसे नवीन संस्करणके लिये यह संशोधन विशेष उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी दृढ श्राशा है । पांचवाँ आश्वास पक्ति अशुद्ध पाठ २० म्लुचेन द्वितय २० सुपुत २२ चित्रो बन्धः २२ यथा यं भवदुःख विन्दतोऽपि पृष्ठ २४५ ग्रहाभिनिवेशम्य इति तर्कयतः अनेकान्त रुरु यादर्शयत् । म राज ( धर्मस्थोयानां मुखानि व्यलो किट ५. परिग्रहीन न्यास्त वै 60 ६ पचितस्ततो ११ तेपु १३ मणिमयूर १५ योगास्थिति १६ कुचभार २० बाहुबल २३ विधिलयना शुद्ध पाठ म्लुचेनाद्वितीयं सुप्त चित्रो वध; यथाऽयं च पृष्ठ २४६ परिगृहीत न्याश्रवैः पचितात्तनो गतेषु मणिमय योगस्थिति कुचुमार बाहुबलि विविधलयना
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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