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'यशस्तिलक' का संशोधन
(लेखक-५० दोपचन्द जैन पारड्या)
दिगम्बर जैनसाहित्यम ‘यशस्तिलक' नामका एक वर्ष पूर्व निणयसागर प्रेस वम्बईके अधिपति मेठ
प्रसिद्ध गद्य-पद्यात्मक चम्प ग्रंथ है, जिमे यशोदेव तुकाराम जावजीने अपनी 'काव्यमाला' नामकी ग्रंथके शिष्य अर नमिदेवक शिष्य श्री मोमदेवसरिने मालामे नं०७० पर दो वएडोंमें प्रकाशित किया था। शक संवत -१ (वि०सं०१०१६) में नाकर समाप्त उसी वक्तसे यह ग्रंथ विद्वानोंक विशेष परिचयम किया है। इसमें यशोधर महाराजका चरित्र आठ आया है, जिससे उक्त प्रेसके अधिपति निःसन्देह
आश्वासोमे वर्णित है, जिनकी शोकसंख्या सब मिला धन्यवाद के पात्र है, अ.र यह उनकीकृत-साहित्यके कर आठ हजार है। पिछले तीन आश्वास उपासका- साथ साथ जैन-साहित्यकी भी विशेष सेवा है-और ध्ययन (श्रावकाचार)-विषयक धर्मापदेशको लिये हुए भी कितने ही जनप्रन्थ उन्होने अपनी काव्य-माला हैं, जो ४६ कल्पोंमें और प्रायः दोहजार जितनी शो- मे प्रकाशित किय है। कसंख्या संकलित है। इस ग्रंथपरमे सोमदेवसरिफा
यहॉपर यह बात भी प्रकट कर देने की है कि विशाल अध्ययन नथा साहित्यादि-विपयक प्रकाण्टु
बम्बई का उक्त निर्णयसागर प्रेस अपनी शुद्ध पाईके पाण्डित्य पद पदपर झलकता है, और यह उनकी
लिये मशहर है; परन्नु खेदके साथ लिम्ना पड़ता है अमर रचना ही नही बल्कि समूचे संस्कृत साहित्यम
कि इस ग्रंथ के उत्तरखण्डका टीकाके बादका भाग बहुत एक बेजोड़ रचना है । इस काव्यमाहित्य तथा राजनीतिका एक मालिक अपूर्व ग्रन्थ कहा जा सकता है।
" ही अशुद्ध छपा है, उसमें दो-चार, दम-बीस हो नहीं
किन्तु सैकड़ो अशुद्धियाँ हैं, जो पढ़नेवालोको बहुत ही इमका गदा 'काटम्बरी' की टकरका है और इस समृचे ग्रंथमे 100 से अधिक शब्द मे हैं जो वतेमान को प
चक्करमे डालती है-कितनों होको उनके कारण विषय ग्रंथोमे हूँढे भी नहीं मिलते। यह ग्रंथ विविध विषयों
म्पष्ट नहीं हो पाता और कितने ही उन्हें लेकर अर्थका
अनर्थ कर डालते है ! निर्णयसागर जैसे जिम्मेदार के सुन्दर परिचयक माथ माथ व्यत्पिनिको-प्रनिभाको प्रदान करता है, माथ हो कर्णप्रिय, अर्थ-बहुल तथा
प्रेसमें खुद उमीक मम्पादको द्वारा सम्पादित होकर पे
प्रथम इतनी अधिक अशुद्धियोका होना बहुत ही चित्तम चमत्कार पैदा करनेवाला है, इस दृष्टिम संस्कृ
बटकता है और वह उक्त प्रेमको शोभा नहीं देता। नन्न विद्वानों के लिये मदा ही पठनीय तथा मननीय
हो सकता है कि प्रयत्न करने पर भी प्रेसको उम भाग बना हुआ है, और इस तरह जैनसाहित्यमें एक बड़े
की कोई शुद्ध प्रति न मिली हो, फिर भी महामहोपाही गौरवकी वस्तु है । इम ग्रंथपर श्रुतमागरमूरिकी ध्याय जैम विद्वान सम्पादको द्वाग अपनी ओरम उन्हें एक बहुत ही सरल तथा विस्तृत टीका भी उपलब्ध है। कुछ म्यष्ट करने का प्रयत्न जरूर करना चाहिय था, जो जो ग्रंथ के भावको अच्छा व्यक्त करती है। परन्तु यह
करता हा परन्तु यह नहीं किया गया। जहाँ र्टका समाप्त होती है वहाँ टीका अधूरी है-माढ़े चार आश्वास तक ही पाई जाती है,
उत्तर खण्डके २४४ पृष्ठपर सम्पादकोहाग यह नोट बार इस तरह इस चम्पूक पाँचवे अाश्वासका कुछ भाग तो जहर लगाया गया है कि उत्तरं टिप्पणादातथा अन्नके तीन आश्वाम विना टीकाक ही पड़े हुए हैं। लंक्रतो मलग्रन्थो मुद्रणीयो भविष्यति"-इममे आगे
इस ग्रंथको उक्त टीकाक साथ आजसे कोई ४० का भाग टिप्पणी आदिमे अलंकृत होकर आपेगा।