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अनेकान्त
दामिनि दमकल निशि अंधियारी विरहनि काम वान उरे मारी। भुगव हि भोगु सुनहि सिख मोरी जान काहे मई मति वीरी ॥ मदन रसायनु हइ जगसारू, संजमु मेमु कथन विवहारू ॥ शे०-जब लगु हंस शरीरमहिं तब लग की भाँगु
राज तजहिं भिक्षा भमहिं इंउ भूला मबु लोगु ॥ सो०-सुख विलसहि परवीन, दुख देखहिं ते बावरे ।
जिउ जल हां] मीन, तह फिमरोह पलि रेलकइ ।। पुनिहां-यहु जग जीवन लाहु न मनु तरमाइए । तिय पिय सम संजोगि परमसुहु पाइए ॥ जो हु समझणहारू तिसहि सिख दीजिए । जाणत होह प्रयाणु तिसहिँ क्या कीजिये ॥ ( सीता ) शुक-नासिक मृग-डग पिक-वहनी जानुकि वचन लवइसुखिरइनी अपना पियुपय अमृत जानी अवरपुरिष रवि- दुग्ध-समानी ॥ पिय चितवन चितु रहद्द अनंदा, पिय गुन सरत बदल जसकंदा प्रीतम प्रेम रहह मनपूरी, तिनि वाजिम संगु नाहीं दूरी ॥ जिनि पर पुरष तिवारति मानी हसेनि सो आदि विकानी ?
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करत कुशील बढ़त बहु पाए, नरकि जाइ लिउ हर संतापू जिउ मधुबिंदु समुख अढ़िये, शीख बिना दुरगति दुख सहिये। कुशल न हुइपरपिय रस बेली, जिउ सिसु मरइ उरग- सिउँ खेली दोहरा -सुख चाहते बांवरी पर पति संग रतिमानि ।
जिउ कपि शीत विथा मरह तापत गुञ्जा आनि । सोरठा-तृष्णा तो न बुझाइ जलु जब खारी पीजिये ।
मिरगु मरइ धपि वाह जल धोखपति रेतक पुनिहां पर पिव सिउँ करि नेहु सु जनसु गँवावना ।
दीपगि जरह पतंग पे ख सुहावना ॥
[ वर्ष ५
रचनाएँ तो इतनी बड़ी है कि वे स्वयं एक एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूपमे संकलकीमती है। ब्रह्मविलास की कविताएँ काव्य-कलाकी दृष्टिसे तमाम रीतियों शब्दालङ्कार और अर्धालङ्कारसे परिपूर्ण है, स्थान स्थानपर अनुप्रास और यमक की झलक भी दिखाई देती है, साथ ही इसमें अन्तर्लापका बहिलपिका और चित्रबद्ध काव्योंकी रचना भी पाई जाती दे प्रस्तुत संग्रह पवपि सभी रचनाएँ अच्छी है परन्तु उन सबमे १ चेतन कर्मचरित्र, १ पंचेन्द्रिय-सम्याद, ३ मनबत्तीसी, ४ वाईस परिषद्य, ५ वैराग्यपबीसिका ६ वन बत्तीसी, ७ सूवाबत्तीमी और परमात्मशतक श्रादि रचनाएँ बड़ी ही चित्राकर्षक और शिक्षाप्रद जान पड़ती हैं। ये अपने विषयकी अनूठी रचनाएँ हैं। कविवर भक्तिरसके भी रसिक थे, इसीसे आपकी कितनी ही रचनाएँ भक्तिरस से स्रोत-प्रोत है। इस ग्रंथके दो चार पयोंको ही यहाँ बतौर नमूने दिया जाता है:
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राग न कीजे जगतमें, राग किये दुःख होय । देखहुकोकिल पीजिरे, गहि डारत हैं लोय ॥ परिग्रह संग्रह ना भलो, परिग्रह दुखको मूल । माखी मधुको जोरती देख दुखको गुल ॥ चेतन चन्दन वृक्ष सों, कर्म साँप लपटाहिं । बोलत गुरु वच मोरके, सिथिल दोष दुर जाहिं ॥ केई केई बेर भये भूपर प्रचंड भूप,
बडे बडे भूपनके देश छीन लीने हैं। कई कई बेर भये सुर भौनवासी देव
केई केई बेर तो निवास नर्फ कोने हैं ।। कई कई बेर भये कीट मल मूत महि
ऐसी गति नीच बीच सुखमान भीने हैं। कौडीके अनंग भाग श्रापन बिकाय चुके,
पररमणी रस रंग कवणु नरु सुहु लहह । जब कब पूरी हानि महति जिहं अहि रहद्द ॥ यहां पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इन दोनों प्रकाशित प्रत्योंमेंसे 'अनेकार्थनाममाला' के प्रका शनकी योजना वीरसेवामन्दिर में होगई है। सीर सेवामंदिर के अधिष्ठाता पं० जुगलकिशोर मुरुनार उसे शीघ्र ही 'शब्दानुक्रमकोष' आदि अलंकृत करके अपनी 'प्रकीर्णकपुस्तक 'माला' में प्रकाशित करना चाहते हैं ।
३ ब्रह्मविलास - यह भिन्न भिन्न विषयों पर लिखी गई ६७ कविताओंका एक सुन्दर संग्रह है। इनमे से कितनी
गवं कहा करे ! देख ' रग दीने हैं ॥ मूद जे लागे दश बीस सौ से तेरह पंचास सोरह वासठ कीजिये, छांड चारको वास ॥ जोलों तेरे हिये भर्म तोलों तू न जाने मर्म
कौन आप कौन कर्म कौन धर्म साँच है। देखत शरीर धर्म जो न सहे शीत धर्म
वाहि घोष माने धर्म ऐसे भ्रम मात्र है ।