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किरण ३-४]
क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
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हम निष्कलंक समन्वय पाते हैं । कुमार के गुणों के कारण क्षण-नश्वर-मैश्वर्यमित्यर्थ सर्वथा जनः मुदर्शन यक्षने उनका नाम 'पवित्रकुमार' भी खा था। निरगषीदिमा दृष्ट्वा दृष्टान्ते हिस्सुटा मतिः॥८६॥ उनकी धार्मिकता तथा जिनेन्द्रभक्ति के कारण प्रास्तिक्या अर्थात-पूर्व में जीवोंके पापकर्मोदयकी विचित्रताका चूडामणि' के रूपमें उनका स्मरण किया गया है। कुमार वर्णन शास्त्रोंमें सुनने वाले व्यक्ति इस समय देखे कि जो के चरित्रसे इस बातका स्पष्टीकरण हो जाता है कि श्रादर्श महारानी लक्ष्मीके तुल्य थी, वही अब ऐसी हो गई है कि जैन क्षत्रियका किस प्रकार उज्वल रूप रहता है। वे रणशूर उसके पास कुछ भी नहीं बचा है। तथा धर्मवीर हुआ करते थे।
इसको देख कर लोगोंको इस बातका निर्णय कर लेना कुमारके प्रतिद्वन्दी काष्ठांगारका चरित्र अत्यन्त मलिना चाहिए कि ऐश्वर्य क्षणभरमें विनाशशील है, क्योंकि कोयलेमे भी काला बताया गया है, जिसमे काष्टांगारका उदाहरणके देखनेस बुद्धि स्पष्ट हो जाती है। पतन और पराभव देखनेकी श्राकाक्षा पाठकोंके हृदयमें अत्यन्त मृदुल शय्यापर पुष्पीके डंठल जिस महारानी शुरूप ही उत्पन्न होती है, और जिसकी पूर्ति वीरशिरोमणि को पूर्वमे संतापजनक थे अब 'दर्भशय्याप्यरोचन'-डाभ कुमारने उस दुष्टकी जिन्दगीका अंत करके की है । काष्टांगार की शैया भी अच्छी लगती है। अब अपने हाथमे काट अपनी कृतघ्नता के कारण हेमलेटमे वणित क्लाडियस' के कर लाया हुश्रा अनाज (नीवार) ही महारानीका आहार है।" ममान हीनचरित्र प्रतीत होता है, यद्यपि काष्टांगार शेक्स- वास्तवमे किसी पदार्थको मुग्वदायक या दुःखप्रद मानना पियरके क्लाडियसके समान व्यभिचारी नहीं है। इस प्राणीको मनोभावना पर निर्भर है, यही कारण है कि
जीवंधर स्वामी के पिता होने के कारण महाराज सत्यंधर अकिंचना होते हुए भी विजयादेवी अपने दुःस्वके दिन के प्रति हमारे हृदयमें सन्मानका भाव उदित होता है, बराबर काट रही थी, इसी कारण शेक्सपीयरने लिखा हैकिन्तु उनकी भोग-निमग्नता बहुत बुरी मालूम पड़ती है। There is nothing good or bad, but यह अवश्य है कि विषयोमे मग्न होते हुए भी उनमें thinking makes it so ( Hamlet क्षत्रियोचित तेजस्विता काफी मात्रामें मौजूद पाई जती है। ACT II, Scene || ) कोई चीज बुरी अथवा भली उनकी महत्ता और जीवंधरकुमार जैसे चरमशरीरी पुण्या- नहीं है, किन्तु वह हमारे विचारके द्वारा उस प्रकारकी बुरी रमाके पूज्य पिता होनेकी विशेषता हमारे अंत:करणमे तब या भली बन जाती है। अंकित होती है जब वे काष्टागारकी सेनासे युद्ध करते हुए महारानी विजयाकी अाकस्मिक धापत्ति देख कर हमें 'मुधा प्रारिणवधन किम' सोचते हुए समतापूर्वक मचे सीतादेवीके बनोवासका दृश्य स्मरण हो पाता है, जब उस वीके रूपमें मृत्युका स्वागत करते हैं और ज्ञान एवं वैराग्य सतीको कृतान्तवक्र सेनापनिने भयानक बनमे असहाय के रसम मग्न होकर अपना उद्धार कर लेते हैं। ऐसी छोद दिया था, इतना अंतर अवश्य है कि सीताके परित्याग अवस्थामें महाराज सायंधर अपनी अमिट महत्ता हृदय में मे कारण रामचन्द्रजीकी बुद्धिपूर्वक दी गई श्राज्ञा थी अंकित कर जाते हैं।
और विजयादेवीके सम्बन्धमे उसका दैव ही रूठा था, ___ महारानी विजयाको देखकर हृदयमें करुणाका सागर
जिसने भयंकर विषमपरिस्थिति उत्पन्न करदी थी । भाग्यउद्वेलित होने लगता है। कहां साम्राज्ञीके अनुरूप संपूर्ण
चक्र बदलता रहता है, उसीके अनुसार विजयादेवीके सौभाग्यकी सामग्रीका उपभोग और कहां श्मशानभूमिमें दिन भी फिरे. और जीवंधरकुमारको साम्राज्य-लाभ होने गिरना और पुत्रकी प्रमूति होना ऐसी करुण स्थितिका थोडे ।
पर विजयादेवी पुन राजप्रासादमे आकर राजमाताके किन्तु मार्मिक शब्दोंमें महाकविने इस प्रकार चित्रण किया है
अादरणीय पदपर विराजमान हुई, और कुछ समयके जीवानां पाप-वैचित्रीं श्रुतवन्तः श्रनी पुग
पश्चात साध्वीके शान्तिमय मार्गमें लग गई। पश्येयरधनानीव श्रीकल्पाभूदकिचना शारीमा
॥शा श्रेष्टि गंधोकट माता सुनंदा, नंदाढय, गंधर्वदत्ता १ देवो 'गद्यनिन्तामणि' काव्य
आदि रानियां, पद्मास्य श्रादि मित्रोंक चरित्रपर प्रकाश