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________________ १४८ अनेकान्त [वर्ष ५ डालनेकी न तो विशेष आवश्यकता ही है और न स्थान विवेकपूर्वक करना चाहिये, क्यों कि वे प्रथा (dependही । अस्तु, यग्न करनेपर भी हम अदम्य साहसी स्पष्ट- 11) पुरुषके जीवनका उपाय खोजते हैं किन्तु अपना वादिताकी जीवेतमूर्ति धर्मदत्त सचिवकी निर्भीक सलाहको तिरस्कार करने वाले व्यक्तियोंका विनाश भी कर डालते हैं।' नहीं भुला सकते, जो उसने काष्टांगारको प्राणोंकी बाजी नरेशों के प्रबल प्रभाव तथा सामर्थ्यकी ओर ध्यान खेलते हुए भी दी थी, कि राजद्रोह करने में तुम्हारा कल्याण दिलाते हुए कविवर लिखते हैं किनहीं है। इसी प्रकार काष्ठांगारका साला मथन भी अपनी अकुतोभीतिता भूमे पानामाझयान्यथा। दुष्टतापूर्ण अमन चेष्टाओं के कारण ठोक धर्मदत्तका विपरीत आस्तामन्यत्सुवृत्तानां वृतांच नहि सुस्थितम॥३-४२ रूप प्रतीत होता है। यदि धर्मदत्त प्रकाशरूप कहा जाय, अर्थात्-राजाकी प्राज्ञाके अनुसार प्रवृत्ति करनेमे तो मथनको अंधकारकी उपमा देना बहुत उपयुक्त होगा। किसी प्रकारका भय नही होता, किन्तु उनके प्रतिकूल अब हम पाठकोंका ध्यान ग्रंथकी मार्मिक बातोंकी ओर प्रवृत्ति करनेसे और तो क्या बड़े बड़े सदाचारियों तकका घाकर्षित करेंगे। ___ चारित्र ठिकाने नहीं रह सकता। धर्म और अर्थ अपने शासनको सफलतापूर्वक चलानेके लिए एक समय था जब लोग धर्मका अधिक राजयोंको बहुमुखी नीतियोंका अवलम्बन लेना पड़ता है। इसका कारण यह है कि उनको विलक्षण प्रकृतिके मानर्वोमे आदर किया करते थे किन्नु आजकल धर्मके स्थान को अर्थने ग्रहण कर लिया है। उसी अर्थ समस्याके ही काम पढ़ता रहता है अतएव बन्ने विवेक और चतुरताके परिणाम फैसिज्म, मोशलिज्म, इम्पीरियलिज्म, आदि साथ कार्य करते रहनेपर वे सफल शामक हो पाते हैं। महाकवि शासकके लिए यह बात बताते हैं, कि उसे नवीन नवीन वाद उठ खड़े हुए हैं। जीवनकी प्रवृत्तिको सहमा अपने हृदयका भी विश्वास नही करना चाहिये । देखते हुए ज्ञात होता है कि लोग अधिकतर किसी भी देखिए वे क्या कहते हैंउपायसे अपनी भोग-लिप्साको पूर्ण करने में संलग्न हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं पगे नरः। नजर आते हैं। ऐसी धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी किन्तु विश्वस्तवदृश्यो नटायन्ते हि भभुजः१-१५ विषम परिस्थितिक विषयमे श्राचार्य वादीभ सहने संघर्ष श्रत-राजाओंको (सहसा) अपने हृदयपर भी निवारणकी एक सुन्दर बात कही है विश्वास नही करना चाहिए, अन्य पुरुषकी तो बात ही परस्पराविरोधेन त्रिवर्गा यदि मेव्यते दूसरी है, किन्तु विश्वस्तके समान अपनेको दिखाना अनर्गलमतः माख्यमपवर्गाऽप्यनुकमात् ॥१-१६ चाहिये । राजाओंका भाचरण नरके समान होता है। अर्थात-परस्पर अवि रूप यदि धर्म, अर्थ और काम- राजाके लिए यह भी उचित है कि वह पनी यात्वो रूप त्रिवर्गका सेवन किया जाय, तो निष्कंटक सुख मिलता गोप्य रखे तथा जब तक इ कार्य की सिद्धि नहीं होती है. है, तथा क्रमसे मुक्ति भी प्राप्त होती है। तब तक शत्रुकी भी आराधना करे।। इसका कारण महाकवि हरिचंद्रने यह बताया कि काम "श्रा समीहितनिप्पोगराध्याः म्बलु वैरिण :"||१०-२२ पुरुषार्थका मूलकारण धर्म और अर्थ पुरुषार्थ है। संपत्ति इसी नीतिका अवलंबन जीबंधर स्वामीके मामा की प्राप्तिके लिए धर्मका पालन होना भी जरूरी है। जिन महाराज गोविन्दराजने दिया था, यद्यपि वे पापी काष्टांगार को एकान्तरूपसे धर्मप्रिय है उनके लिए महाकविने तपोवन का विनाश हृदयसे चाहते थे, फिर भी अनुकूल समयकी की ओर जानेकी सलाह दी 'वनमेव सेव्यताम्' (धर्मशर्मा प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने काष्टांगारके साथ जाहिरा तौर भ्युदय)। राजनीति अपना स्नेहभाव प्रदर्शनमें किसी प्रकार कमी न की। राजनीतिक विषपमें विचार करते हुए अधिना जीवनोपायमपायं चाभिमाावनाम् । प्राचार्य लिखते हैं कि राजाओंकी आराधना अभिके समान कुर्वन्तः खलु राजान: सेव्या इव्यवहा यथा ॥ १०-५ ॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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