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________________ अनेकान्त [वर्ष ५ साहित्यके विषयमें एक विद्वान्ने लिखा है - दृश्य उपस्थित करती है। सभाषितोंके लिखनेमें गहरे It is the record of best thoughts अनुभव, अध्ययन तथा लोकोत्तर योग्यताकी आवश्यकता Its function is the cultivation of पडती है। यह विदग्धता तो विरलोंको ही प्राप्त होती है, sympathics and Imagination, the कि जिनके लिखे गये चार शब्दोंको सुनकर हृदय आनंदित refinement of feelings and the en- हो जाता है और लोग उन शब्दोंको कंठाभरण बना लिया largement of the moral Vision करते हैं। टकसालमें छपे हुए सच्चे सिक्केकी किसीके "यह सर्वोच भावोंका भण्डार है। यह सहानुभूति एषं राज्यमें जैसी इज्जत होती है, उससे अधिक सम्मान विश्वके कल्पनाशक्तिको समुन्नत करता है। इसके द्वारा भावनाएँ साम्राज्यमे महाकवियोंकी सजीव उक्तियोंका हुश्रा करता परिशुद्ध होती हैं तथा नैतिक दृष्टि विशाल होती है।" यह है। यही कारण है कि सुभाषितका माहात्म्य एक कवि इन बात क्षत्रचूडामणिके विषयमें पूर्णरूपमे चरितार्थ होती शब्दोमे संकीर्तित करता है :हैं, क्योंकि ग्रंथमें सर्वत्र पवित्र विचार धाराएँ बहती हैं सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया । जिनमे भावनाएँ मिर्मल होती हैं और नैतिक दृष्टिकोण भी मनोन भिद्यते यस्य स योगी ह्यथवा पशुः॥ काफी परिमार्जित तथा परिवर्धित होता है। अर्थात्-सुभाषित, गायन तथा तरुणियोंकी विलासप्राचार्य वादीभसिंह ने एसे श्रमूल्य तथा आवनाशा युक्त चेष्ठात्रों से जिमका हृदय प्रभावित नहीं होता है वह सग्यका अपनी इस रचनामें प्रतिपादन किया है, जिसके या तो योगी है अथवा पशु है। कारण उनकी रचना अमर हो गई है। वह देश और काल एक कवि तो सुभाषितके उससे मुग्ध होकर यहां तक की परिधिसे परिच्छिन्न न होकर विश्वव्यापिनी कहता है(universal) हो गई है। यह कृति विद्यतके समान द्राक्षा म्लानमुखी जाना शर्कग चाश्मतां गता। क्षणभर चमक दिग्बाकर विस्मृतिके गर्भमे लीन होनेवाली सुभापित-रसम्याग्रे, सुधा भीता दिवं गता ॥ नहीं है, बल्कि महासागरके समान व्यापक और मेरके अर्थात-मुभाषितके रसके श्रागे द्राक्षाका मुख मलिन समान स्थिर साहित्यकी श्रीवृद्धि करती रहेगी। हो गया, शर्करा (शक्कर-बालूरेत.) अश्मपने (पापाणपने) सकी भाषा क्लिष्टताके द्वारा जटिल नहीं बनाई गई को प्राप्त हई. को प्राप्त हुई और तो और अमृतको डरकर स्वर्गमें भागना है। यह सरल सरस तथा प्रसाद-गुण समन्वित काव्य पदा वैदर्भी रीतिमें लिखा गया है। इसका अलंकार सादगी है, इस ग्रन्थमें प्राय: वीर और शान्तरसका वर्णन है, स्वाभाविकता है। कृत्रिम भाषाके श्राडम्बरमें उज्ज्वल किन्तु करुण-रसकी भी पर्याप्त सामग्री पाई जाती है। भावोंको छिपाकर दुरूह बनाने की यहां चेष्टा नहीं की गई, स्वयं ग्रंथकारने इस चरित्रको अत्यन्त करुणाजनक बताया सरल, सरस, सजीव और सुरुचिपूर्ण सामग्री समन्वित है।' थोडे शब्दों में बहुत भावोको प्रदर्शित करते हुए यह ग्रंथ 'द्राक्षा' के समान छोटे बड़े सबको पालादनक है। अपनी रचनाको आकर्षक बनानेमें प्राचार्य महाराज पूर्ण ग्रंथकी खास विशेषता सफल हुए हैं । ग्रंथको हाथमे लेनेपर पूर्ण किए बिना इस ग्रंथकी एक खास विशेषता यह है छोइनेवो जी नहीं चाहता। कि आचार्यश्रीने प्रायः प्रत्येक श्लोकके उत्तरार्धमें महाराज जीवंधरका चरित्र बड़ा ही सुन्दर चित्रित गम्भीर, मार्मिक तथा मंजुल उक्तियोंसे अमूल्य किया गया है । जीवंधरकुमारके चरित्रमें धार्मिकता, वीरता, शिक्षाएं दी हैं। वैसे तो भारवि आदि अनेक कवियोंने जितेन्द्रियता, दीनदयालुता, विश्वोपकारिता, साधुता, भी अनेक शिक्षाप्रद सूक्तियोंसे अपनी-अपनी रचनाओं को साम्राज्य-संरक्षण-पटुता, नीतिज्ञता श्रादि अनेक गुणोंका सुशोभित किया है किन्तु श्राचार्य वादीभसिंहकी इस १ श्रुतशालिन् महाभाग भूयतामिह कस्यचित् । चरनामें उक्तियोंकी विपुलता तथा गम्भीरता कुछ अपूर्व ही चरितं चरितार्थेन यदत्यर्थ दयावहम् ॥२-६
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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