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क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
[ले०-पं० सुमेरुचंद जैन 'दिवाकर' न्यायतीर्थ, शास्त्री 13 A L L.13]
माहेण्यके गद्य और पद्य नामके विभागों में अधिकांश के एकमात्र केन्द्र शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे
"कवि ऐसे पाये जाते हैं जो एक-एक क्षेत्र में ही वायुयानके समान एक श्राकाश में उढने वाला मयूरयन्त्र अपना प्रभु'व रखते हैं। कालिदास, भारवि, भवभूति भी बनवा रखा था और उसमे युद्धकी विकट स्थितिके श्रादि कविजन पद्यके क्षेत्रमें विख्यात हैं, तब गद्यके समय महारानीको बैठाकर उद्दवा दिया था। अवसरकी क्षेत्रमें वाण श्रादिका सम्मानपूर्ण स्थान है। यह सौभाग्य बात है कि वायान श्मशान भूमिमे पहुंचा और वहाँ बिरलोशे ही प्राप्त होता है कि गद्यके समान पद्यके क्षेत्र में महारानीके एक तेजस्वी पुत्ररत्न उत्पन्न हुश्रा । महारानी भी यशस्वी होवें । अंग्रेजी साहित्यमें भी यही बात पाई तो तपस्वयोंके एक श्राश्रममे रहकर अपना समय काटने जाती है गद्य लेखकाम लेम्बुस्काट, डा. जानमन. मेकाले लगी, और एक अत्यन्त समृद्ध वणिक शिरोमणि श्रेष्ठि श्रादिका नाम प्रसिद्ध है, किन्तु वे पद्य लेखकामे अपना घर गधोतटके यहा बालकका पालन-पोषण हुश्श्रा । बालक कोई उल्लेग्वनीय स्थान नहीं बना सके। इसी प्रकार उच्च जीवंधरने पायनंदी नामके महान् श्राचार्य के द्वारा अनेक कोटिके पद्यकागोम मिल्टन, टेनीमन, शैली, वाउनिग श्रादि विद्याओंमें विदग्धता प्राप्त की। तरुण होनेपर कुमारखो का नाम लिया जाता है, किन्तु गद्य संसारमे उनकी उस ज्ञात हुया कि मैं क्षत्रियपुत्र है, मेरे राज्यका अधिकारी प्रकारकी कोई ख्याति नहीं है। उच्च गद्यलेखक और काष्ठागार बन बैठा है। कुछ समयके अनन्तर जन-धन पद्यकार होनेका सौभाग्य जैन महाकवि वादीसिहको प्राप्त प्रादि सब प्रकारों के बलोंये सुजित होकर वीरशिरोमणि है। इनके गचितामणिके पारायणसे 'वाणोरिछष्ट मिदं जीवधरने काटागारको मारकर अपने गज्यको प्राप्त किया। जगत्' की उक्ति अत्युक्तिपूर्ण प्रतीत होती है। इनका काफी समय तक वैभव-विभूतिका श्रानन्द लेकर स्थायी क्षेत्र चूडामणि ग्रन्थ काव्य-जगतका निष्कलंक दीप्तिमान शान्तिके लिए महागज जीवंधरने अपने पुत्र सत्यंधरको नक्षत्र है। इस गंथमें महाकवि वादीभसिंहने क्षत्रियोंके राज्य-भार मापकर जैनी दीक्षा धारण की और महावीर चूडामणि महागज जीवंधरके मनोहर चरित्रका अन्यन्त भगवानके शरणमे रहकर अपनी श्रामशुद्धि की तथा परम प्राकर्षण ढंगसे वर्णन किया है।
मुक्ति प्राप्त की। कथाका सार
यह कथा श्री गुणभद्राचार्य के उत्त पुराणाले भावको जीवंधरकी कथाका संक्षिप्त सार इस प्रकार है लेकर लिग्बी गई है। और भी अनेक कविडामणियोंने कि हेमांगद देशकी राजधानी राजपुरीमें जैन जीवंधर कुमारके चरित्रको वर्णन करने में अपनी लेखनीको धर्मावलम्बी महाराज सत्यधर राज्य करते थे । उन्होंने सफल किया है जिनमें महाकवि हरिचन्द्रका जीवंधरचम्पू' अपनी महारानी विजयामें प्रत्यासक्त होनेके कारण मन्त्री तथा कन्नड भाषाके ग्रंथकार तिरक्कदेवका जीवकचितामणि' काष्ठांगारके हाथमे राज्यका भार सौंप दिया। कृतघ्न काष्टां. खास तौरसे उल्लेख-योग्य हैं। गारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्यपर अपना कम्जा क्षयचूडामणि के रचयिताका असली नाम 'श्रोडयदेव'x कर लिया। उस समय छात्रधर्मको पालन करते हुए युद्ध- था, 'वादीभसिह' उनकी उपाध थी। उनका समय लगभूमिमें महाराज सत्यंधरका शरीरान्त हो गया। महाराजकी भग नवमी शताब्दीका अनुमान किया जाता है। रानी विजया गर्भिणी थी, अतएव सनिय राजबंशकी भाशा x देखो गद्यचितामाण १ लेक ६-७