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________________ किरण १०१६ पउमरियका अन्तःपरीक्षण ३३६ मामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोमहं भणियं । सल्लेखना (समाधिमरण) को चतुर्थ शिक्षावतके रूपमे नइयं च अनिहिपज्जं चउत्थ मल्लहरणा अंते ॥२६॥ विहित दिखलाना और न -चारित पाहुड विक्रम संवत ६० से पूर्वका माममा होगा। पंच य प्रणव्वगाई निरणेव गुरवयाई भणियाई। (३) उमाम्बाति-विरचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंकी पउममिायावयाणि एन चत्तारि जिगोवट्ठागा ॥११२।। चरियके कतिपय स्थलों के साथ तुलना करनेसे दोनों में भारी लयर पाणिवहं मूमावायं अत्तनाणं च । शब्दमाम्य और कथनक्रमकी शैलीका अरछा पता चलती पर जवईग्ण निवनी मन पंवयं च पंचमयं ॥ ११३ ।। है। और यह शब्दसाम्यादिक श्वेताम्बराय भाष्य मान्यदिमिविनिमाण य नियमो अगत्यदेवावगं चैव। पाठके साथ उतना सम्बन्ध नही रखता जितना कि दिग 'प्रधभांगपगमारणं तिग्णय गराध्वया गा || १५४ ।। म्तरीयमृत्र-पाठके माथ रखता हुश्रा जान पडता है। इतना मामाइयं च उववास-पांसहो अतिहिमविभागो य। ही नहीं, किन्तु जिन सूत्रोको भाप्य-मान्य पाठमें स्थान अंने ममाहिमरणं निकम्वामुवयाइ चत्तारि ॥ ११५ ।। नहीं दिया गया है और जिनके विषयम भाप्यकं दीकाकार -पउमरिय:०१४ हरिभद्र और सिद्धसैन गणी अपनी भाष्यवृत्तिमें यहांतक इसके सिवाय, प्राचार्य कुन्दकुन्के प्रवचनपारकी मृचित करने हैं कि यहां पर दूसरे कुछ विद्वान् बहुतमे नये निम्न गाथा भी पउमरियम कुछ शब्द-परिवर्तनके साथ सूत्र अपने पाप बना कर विस्तारके लिये रम्बते हैं उनमें उपलब्ध होती है. से कितने ही मूत्रोका गाथाबद्ध कथन भी दिगम्बरीय पर जं अग्गागी कम्मं बवेदि भवमयमहासकं हि। मग मम्मन मूत्र-पाठके अनुसार इसमें पाया जाता है। तं गाणी निहिगुना ग्ववेदि उपमासमनंग ।। ३८॥ यहां पाठको की जानकारीके लिये तत्यार्थसूत्रोकी और पउम -प्रवचनसार अ८३ चरिय की गाथारोकी कुछ तुलना नीचे दी जाती है:जं अन्नागानवम्मी खवेइ भवमयमहापक डीहि ।। उपयोगीलक्षगाम ॥८॥म द्विविधोऽg चतुर्भेदः ।।।। कम्मं तं ति.िगुत्तो खवेदणाणी महत्तेणं ।। ५७७ ।। --तत्वार्थसूत्र, अ०३ -उमयि उ० १०० मी स्थितिम पउमचरियकी रचना कुन्दकुन्दसे पहिले जीवणं उयांगो नाणं नह ईमगं जिणकरवायं । जा की नी हो सकती । कुन्दकुन्दका समय प्राय: विक्रमकी नाण अ M नाणं अधिया चविहं दसरणं भणियं ॥६॥ ली शताब्दीका उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दीका पूर्वार्ध -पउयचग्यि, पहेम १०२ पाया जाता है--तीमरी शताब्दीके बादका तो वह किसी पृथिरप्रेजोवायुवनापतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ __ --तत्वार्थमूत्र, अ०२ तरह भी नहीं कहा जा सकता । ऐगी हाल तमे पउमचग्यिके निर्माणका जो समय यि० सं०६. बनवाया जाता पुढवि-जल-जलण-मारुय-वणम्मई चेव थावग गए। है वह सगन मालूम नही होना। मुनि वरूपाणविजयजीने काया एका य पुणो हवा तो पंचभैय जी ॥६३|| नो कुन्दकुन्दका समय वि० की छठी शताब्दी बलाया है। --उमर्चाग्य, उ०१०२ उन्हें अपनी इस धारणाके अनुसार या नो पउमचरियको जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ देवनारकाणाविक्रमकी छठी शताब्दीके बादका ग्रथ बतलाना होगा, या मपपादः ॥ ३४ ॥ शेषाणां मम्मूर्छनम् ।। ३५ ।। वि० संबन ६० से पहलेके बने हुए किसी श्वेताम्बर ग्रन्थमें -तत्वाथसूत्र, अ०२ *दग्वो, अनेकान्त वर्ष २ किरण १ का प्रथम लेख, श्रीकुन्द- xअपर पनविद्वामोऽतिबनि स्वयं विरच्याम्मिन् प्रस्तावे कुन्द और यतिवृषभम पूर्ववर्ती कौन ? तथा प्रवचनसारकी सूत्राण्यधीयते विस्तरदर्शनाभिप्रायेण । प्रो. ए. एन. उपाध्यकी अंग्रेजी प्रस्तावना । -मिद्धसेनगणी, तत्त्वा० भा० टी० ३, ११ पृ० २६१
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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