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किरण ६-७]
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रमणबेलगोल के संस्मरण
A thing of beauty is a joy for सर्वाङ्गीण अविनाशी सन्यको देख रही है। श्रोठोंपर स्मित ever, Its loveliners increases it will की सूक्ष्म आभा दीखती है, जो संभवतः उनके चिद्रूप never pass into nothingness. ___दर्शनसे उत्पन्न प्रात्मानंदकी धोतिका हो। वह स्मित सदा
'सौन्दर्यसंपन्न पदार्थ सतत श्रानंद प्रदान करता है। विद्यमान रहता है । भयंकर वर्षा, तीव शीत एवं भीषण उसकी रमणीयता बढ़ती ही जाती है और कभी भी उसका उष्णता उस स्मितपर कुछ भी असर नहीं पहुंचाती, कारण अभाव नहीं होता।'
वह अविनाशी प्रारमाके स्वाभाविक भानंदका द्योतक है। हमारा अनेक बारका अनुभव है कि गोमटेश्वर स्वामी और बाह्य सामाग्रये उस प्रभुके शान्ति-रस पानमे वाधा का बार-बार निरीक्षण करने पर भी सदा नवीनता विद्यमान नहीं पहुंचा सकती, क्योंकि वह आत्मनिममता योगीश्वरोंके रहती है, इसीसे पुनः पुनः दर्शन करके चित्त तृप्त नहीं होता। भी आराध्यदेव भगवान मोम्मटेश्वर की है। हमने ता० ३ की रात्रिको प्रभुका बहुत समय तक दर्शन दिशाकी अपेक्षा मृति उत्तरमुखी कही जाती है, किन्तु क्यिा, जब कि चद्रदेव अपनी विमल चंद्रिकामे ज्योतिर्मय गुण प्रादिकी दृष्टिसे वह अनुत्तर है । उनकी शातमुद्रा, भगवानका अभिषेक कर रहे थे । ता० ४ को प्रभातसे क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, शोक, भय, मोह, क्षधा, मध्याह तक भी हमने चार पांच घंटे दर्शन किये, जब कि तृपा, मृत्यु प्रादि विकारोके विजेतापनेको घोषित करता है। सूर्य-प्रकाशये भगवानकी छविका पूर्णतया दर्शन होता था। आजका विश्व अनेक व्याधियोमे, विविध प्रापत्तियोंमे ता. ५ को भी हमने प्रभु का दर्शन किया; किन्तु दर्शनकी निमग्न होकर पीड़ाके कारण कष्ट पा रहा है । वह यदि पिपामा शान्त नहीं हुई। मूर्तिका सौन्दर्य और नवीनता भगवान गोम्मटेश्वरके चरणोंका श्राश्रय ले, तो उसे प्रभुकी पूर्ववत् ही दिखाई देती थी।
मौनी मूति यह उपदेश देगी, कि यदि तुम्हे शांत चाहिय, इंद्रगिरि-शिखर पर निराश्रयस्थित ५७ फीट ऊंची तो मेरे पास या जाग्रो, और मेरे समान जगतके मायाभगवानकी मूर्तिके पृष्ठ भागमें श्राकाशकी नीलिमा बहुत जालका स्याग कर प्रकृतिप्रदत्त मुद्राको धारण करो। क्रोध, भली मालूम पड़ती है। सूर्यका पाना तथा जाना, चंद्रमा मान, माया, लोभ श्रादिका परित्याग करो; देखें तुम्हारा का नक्षत्र-मालिका-सहित उदित होना और अस्ताचलगामी दुःख कैसे नही दूर होता है ? जब गोम्मटेश्वरके चरणों होना यह बताते हैं मानों प्रकृतिदेवी अपने तेजस्वी के समीप बैठनेसे दुःख-ज्वाला शांत होती है, तब उनकी प्रकाशपुनोमे भगवानकी नीराजना-भारती करता हो। मुद्राको धारण करके उनके मार्गपर चलनेसे क्यो न दुःखी
न मालूम कितनी बार वहां जाड़ा-गर्मी-वर्षा-ऋतुओं का क्षय होगा? का आगमन हुआ, किन्तु गोमटेश्वर अपने प्राकृतिक रूपमे प्रकृतिकी मौन वाणीको समझनेकी जिसे योग्यता सदा विद्यमान हैं। श्राम-पासको क्षणभगुर प्रकृति में परिव प्राप्त है वह जान सकता है, कि प्रभुकी मूर्ति कितनी र्तनका तमाशा सदा दीवता है, किन्तु अविनाशी आनंदके अमूल्य शिक्षा प्रदान करती है। प्रकृतिका उपासक कवि अधिपति प्रभुमे कोई चचलना या क्षणभ पुस्ताका दर्शन वर्डसवर्थ तो यह कहता है कि-"Ore impulse नहीं होता । उनकी वही शान्त-गंभीर-अामनिमग्नमुद्रा from avernal wood teaches me more श्रामविजय, कामविजय तथा स्वाधीनवृत्तिको प्रकाशित of moral good and bad than all the करती है। उनके नेत्र यद्यपि खुले हुए हैं, किन्तु उनके sages can." सूक्ष्मदर्शनसे प्रतीत होता है, कि भगवान बहिर्जगतको 'वसंत श्री-संपन्न वनसे प्राप्त भावना मेरे हृदयको देखते हुए भी अंतर्दशके रूप में विद्यमान हैं। उनके नेत्र इतना शिक्षित करती है कि जितनी शिक्षा-नैतिक गुण का स्वयं अनेकान्तदृष्टिके भावको व्यक्त करते हैं। यह पता परिज्ञान-बडे बड़े माधुओं के द्वारा नही प्राप्त होती है।' नही चलता कि गोमटेश्वर चुपचाप खड़े होकर मामने क्या जिस व्यक्तिकी अारमा प्रकृतिसे शिक्षा प्राप्त करनेकी देख रहे हैं। मालूम पड़ता है, कि उनर्क अविचल दृष्टि योग्यता प्राप्त कर चुकी है, वह शेक्सपियर के शब्दोंमें