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________________ ०४२ अनेकान्त [ वर्ष ५ जगहसे उनकी वीतराग मुद्राका दर्शन करने लगे। उस प्रभुकी स्थापना की गई है। हृदय तो यह अनुभव करता समय जो श्रानन्द तथा शान्ति प्राप्त हुई, वह वार्ण के है कि मूति सजीव है, साक्षात् गोम्मटेश्वर है। दर्शन करते द्वारा प्रकाशमें नहीं लाई जा सकती। पल्ले हम कुछ स्तोत्र हुए क्षणभर नेवीको बन्द करनेपर ऐसा अनुभव होता है, पाठ कर रहे थे, किन्तु भगवान के सौन्दर्य निरीक्षण में चित्त- मानो हम योगीश्वर बाहुबली के साक्षात् सम्पर्कमे हों।। एसा लगी कि स्तोत्र-पाठ रुक गया। जैसे बहुत कभी यह भी भाव उत्पन्न होता था, कि मृतिमे भी दिनके भूखे व्यक्ति को अमृत तुल्य पदार्थका आहार प्राप्त जब भावाको प्रभावित करनेकी सामर्थ्य है, तब फिर होता है और वह महान प्रानन्दका अनुभव करता है, साक्षात कामदेव भगवान बाहबलिका जिनमुद्रा धारण उसी प्रकार हमारे नेत्र भी अन्यन्त आसक्तिपूर्वक भगवान । करनेपर कितना न असर पड़ता होगा। का दर्शन कर रहे थे। उस समय यह समझमे आया कि यही भाव महाकवि शेक्सपियरके एक पद्यमे शब्दमात्र भगवानकी रूप-मधुरिमाके पान करनेको क्यों इन्द्र महाराज के परिवर्तन द्वारा प्रस्तुत प्रसगके लिये स्व. जस्टिम जुगपाश्चर्ययुक्त हो सहस्र नेत्रधारी बने ? वास्तवमें जी यही मन्दरलालजैनीने लिखा हैचाहता था, कि क्यों नेत्रों के पलक बीचमे बन्द होकर व्य Ahme! how sweet is Jina itself वधान करते हैं और ऐसे सौन्दर्यके सिन्धुको कैसे छोटेसे possessed. When but Jima's shadows नयनपात्रोंये पीऊ। प्रतीत होता था कि यदि इन्द्र भी are so nchinoy Romes and Jubet. दर्शनको श्रावे, तो वह पुनः सहस्राक्ष बने बिना न रहेगा, विचित्र बात है कि यहाँके सौन्दर्यका अगणित रसज्ञ नेत्रोंने ___ अहा । स्वरूप में निमग्न जिनेन्द्र कितने मनोहर न पान किया, किन्तु उस सौन्दर्यके सिधुमें कोई कमी नही होगे, जबकि उनकी छायामात्र इतने श्रानन्दरस से परिपूर्ण आई, जो संभवतः शास्त्रोमे वर्णित संसारी जीवराशिके है। हजार वर्षके लगभग जिस मृतिको प्रतिष्ठित हुप व्यतीत पमान कही जा सकती है, जिसमे व्यय होते हुए भी पूर्ण न हो गए, वह आज भी दबनेमे नवीन सरीखी मालूम होती क्षयकी कल्पना नहीं की जा सकती। है। मैसूरमे कुछ प्रोफेसर दर्शनार्थ अनेक बार पाए । हाल ही दर्शन पर लौटते समय कहने लगे, ऐसा प्रतीत होता __भगवान बाहुबली महान थे. इस बातको समझने के लिए हमें वहां कल्पनाशक्तिको ज़ोर देनेकी कोई भी जरू है, कि ५-७ वर्ष पूर्व मूर्तिका निर्माण हुअा होगा । साधाग्त नहीं पड़ती। यदि छोटी सी मृति होती हैं तो हमें । रण दृष्टिमे देखने पर तो यह मालूम पडता है कि कुछ ही यह कल्पना करनी पड़ती है कि इस लघु शरीरमे महान् दिन पूर्व प्रतिमा बनाई गई होगी। अामाकी स्थापना की गई है। विशालकाय मुनिको देखकर मृतिवा प्रत्येक अंग नवीनताके अमृतरससे परिपूर्ण स्वयं हृदय उनकी महत्ताका अनुभव करता है। प्रभु बाहु मालूम होता है। जितने बार भी दर्शन करो, वह सदा बलि यथार्थमे जैसे महान महिमाशाली हए हैं. उसी प्रकार दर्शनीय ही रहती है। प्रभुके दर्शन करनेसे प्रतीत होता है का भाव उनकी मृतिमे प्रगट होता है। चाहे वृद्ध हो, चाहे कि वास्तवमै को रमणीय वस्तु होती है, उसके सौन्दर्यका बालक, चाहे श्रज्ञ हो, चाहे विज्ञ, प्रत्येक व्यक्तिके अन्त: भण्डार अक्षय होता है । संस्कृतके कविका यह कथन यहा करणमें भगवानकी महत्ता अंकित हो जाती है और वह अक्षरश: चरितार्थ होता है किअपनी लघुताका अनुभव करता है। कितना ही बडा तथा “पदे पदे यन्नरतामुपैति, नदेव रूप रमणीयतायाः" वैभवशाली व्यक्ति क्यो न हो, यहां दर्शन करते ही वह पद पदमे जिसमें नवीनता पाई जाती है, वही रमअपनी लघुताका अनुभव करता है और महान बननेकी णीयताका स्वरूप है। श्राकांक्षा करता है। अंगरेज कवि कीस (Kests) की उक्तिभी गोम्मटेश्वर प्रभुका दर्शन करते समय यह विचार ही नहीं पाता है स्वामी का दर्शन करनेपर पूर्णसंगत मालुम होती है। वह कि यह मूर्ति है, प्रतिबिम्ब है, अचेतन है, इसमें वीतराग कहता है 4.
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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