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अनेकान्त
[वर्ष५
"Books in the running brooks ser- लगा। क्या यह अनुपम बात नहीं है? उन प्रभुकी दृष्टि mons in stones and good in every जहा पडता है, वहीं समता और मृदुताका प्रकाश फैला things"-'बहने वाले झरनोमे ग्रथाको, पाषाणोंमें धर्मोप- मालूम होता है इसी भावको द्योतन करने के लिए विध्यदेशोको एवं प्रत्येक वस्तुमे भली बातोंको पाता है। गिरिके सामनेकी पापाण-राशि एवं चंद्रगिरिका प्रस्तर-समूह
गोम्मटेश्वरस्वामीका दर्शन करनेवाला प्रत्येक विचारशील स्निग्ध एवं चिकना बन गया और उसका ऊँचा-नीचापना व्यक्ति उनकी मौनी मुद्रासे बहुत कुछ सीख कर श्राता है और दृर होकर उसमें भी समता एव सौन्दर्यका वास होगया। इतना अधिक सीखता है, कि उनकी वीतरागताकी छाप हृदय- भगवान बाहुबलिका प्रभाव और प्रताप त्रिभुवन पटल पर सदा अंकित रहती है। उनके दर्शनये यह बात विख्यात था। प्रतीत होता है कि, इसी कारण उस पापाण समझमे आजाती है कि वीतरागताके भावोसे पूर्ण दिगम्बर पिण्डने कठोर होते हुए भी मृदुता धारण की और कुशल मुद्रा सर्वत्र शांति तथा निर्विकारता का साम्राज्य उत्पन्न शिल्पीने जहां जैसा भाव अंकित करना चाहा वहा उसको करती है। पूज्यपाद स्वामीके शब्दों में कहना होगा कि अनुकूलता प्रदान की, तभी तो ऐसी भावमयी मूर्तिका 'वाणी का बिना प्रयोग किये वे आकृतिसे मोक्षमार्गका निर्माण हुआ जो मनुष्योंकी तो बात ही क्या, देवताओं के उपदेश देते रहते हैं।'
द्वारा भी वंदनीय एवं दर्शनीय है। शिक्षा-मर्मज्ञोका कथन है कि चित्रोंके द्वारा भी बहुत कोई कोई व्यक्ति यह सोचते हैं कि, जब महाराज शिक्षा दी जासकती है। इस बालका प्रशस्त उदाहरण बाहुबलिने दृष्टि, जल तथा मल्लयुद्धमे सम्राट भरतको गोम्मटेश्वर स्वामीकी मूर्ति है, कि जिनके दर्शनसे पुण्य- पराजित कर दिया था, तब उनको राज्य शासन करना था, वृत्तियों का अनायास एवं स्थायी उपदेश प्राप्त होता है। यह क्या ? कि, तत्काल तपस्वी बन गए । उनकी शंका है जिस प्रकार चुम्बक लोहेको अपने पास प्राकर्षित करता है, कि विजेता बाहुबलिने क्यों दीक्षा ली ? उसी प्रकार वीतराग प्रभुकी मूति दर्शकोके चित्तीको अपनी भगवान के दर्शन करते हुए उक्त शंकाका समाधान
ओर आकर्षित करके अपनी गह ी मुद्रा अंकित कर देती है। हमे इस रूपमे प्राप्त हुअा कि--यदि बाहुबलि स्वामीने कैसा ही मलिन मनोवृति वाला मानव उनके दर्शनको जावे दीक्षा न ली होती तो क्या होता ? भले ही बाहुबलिने उसके हृदयमें उज्वल विचारोमा प्रकाश फैले बिना नही भरतेश्वरको पराजित कर दिया था, फिर भी भरत महारहेगा। जो जैनधर्मकी श्रादर्श पूजा के भावको समझना राजके चित्तमें न्यायानुसार राज्य देनेकी भावना नहीं थी। चाहते हैं वे एक बार भगवानके दर्शन करे, तब उनको तभी तो उन्होंने हार जानेपर भी बाहुबलिपर चक्रका प्रहार विदित होगा, कि यहाँ अादर्शके गुणोंकी आराधना किस किया था। यह दूसरी बात है कि वह चक्ररत्न बाहुबलिस्वामी प्रकार की जाती है।
का, कुटुम्बी होनेके कारण, कुछ न कर सका। इस घटनासे __ भगवान बाहुबलि लोकोत्तर पुरुष थे। उन्होंमे चक्रवर्ती बाहुबालको भरतके अंत:करण को समझनेका मौका मिल भरतको भी जीत लिया था और अन्तमे साधु-वेष अंगीकार गया। उन्होंने सोचा और समझा--यदि में राज्य करना किया था। उनके प्रतिबिम्बमें भी विश्वविजयीपनेका भाव चाहता हूं तो भरतके साथ सदा कलह हुआ करंगी, इससे पूर्णतया अतित मालूम पड़ता है, यही कारण है, कि बड़े बड़े मुझे मेरी प्रिय शांति नहीं मिलेगी और हमारे पिता राजा-महाराजा तथा देश-विदेशके प्रमुग्वपुरुष प्रभुकी प्रतिमा भगवान श्रादिनाथको भी लोग भला-बुरा कहेगे । और के पास आते हैं, और अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उपहास करते हुए कहेगे, कि उनके पुत्र बहुत अयोग्य
संसारमें कठिन होनेके कारण पाषाणको अभिमानका निक्ले, कि जो बंधुरखको छोडकर पतित प्राणियोकी तरह प्रतीक बताते हैं । वही मानका उदाहरण कहा जाने वाला निरंतर झगढ़ते ही रहते हैं। इस तरह राज्यधारणसे न पाषाण, जब प्रभुकी अनुपम मुद्रासे अंकित होगया, तो मुझे शांतिलाभ होगा, और न पिताकी कीतिका ही वह मानका नाशक एवं मार्दव भावका उद्बोधक कहा जाने रक्षण होगा । अत: वे सोचने लगे, कि ऐसा