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किरण १-२]
तत्त्वाथसूत्रका अन्तःपरीक्षण
सूत्रकी वृत्तिमें पाठान्तरकी मृचना, चौथे अध्यायके निर्णय करनेमें सहायता मिले कि तत्त्वार्थसूत्रपर किस २२वे सूत्रकी वृत्तिम 'अयमर्थः सूत्रतः कथं गम्यते' सम्प्रदायको मान्यताको गहरी छाप है:इत्यादि ऐसे म्थल है, जिनसे भी यह अनुमान किया भगवान कुन्दकुन्द लिखते हैंजा सकता है कि सर्वार्थसिद्धिवृति मूल सूत्रोक दबत्थिकायप्पण तञ्चपयत्थेसु सत्तणवएसु । ६४ आधारसे लिखी गई होगी। इसलिये सर्वार्थसिद्धि
-रयणसार निबद्ध 'अशुभः पापस्य' यह मत्रांश सर्वार्थसिद्धिकार अर्थ-द्रव्य छह हैं, अस्तिकाय पांच है, तत्त्व का न होकर मूल सूत्रकारका ही रहा होगा, यह कहा सात है श्रार पदार्थ नी हैं। जा सकता है। पर एक तो भाग्यकारने इमे स्वाकार छदव्य णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिट्टिा । हो न किया हागा, यदि स्वीकार भी किया होगा तो सद्दहइ ताण रूपं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्यो ।।२०।। वह भाज्यके अवयवरूपसे ही स्वीकार क्यिा होगा। अथ-द्रव्य छह हैं, पदाथ नो हैं, अस्तिकाय पांच इमे मिलाकर यदि समूचा भाव्य पढ़ा जाता है तो हैं श्रार तत्त्व सात हैं। इनके स्वरूपका जो श्रद्धान उसका स्वरूप निम्नप्रकार होता है। जो कि 'शुभः करता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये। पुण्यस्या शुभः पापस्य' को एक सत्र मान लेने पर सव्वविरो वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई। अपने रूपमे परिपूर्ण कहा जा सकता है। यथा- जीवसमासाई मुणी चउदस गुणगणणामाई ।।६।। 'शुभो योगः पुण्यस्य श्रावो भवनि अशुभः
-भावप्राभृत पापस्य । तत्रमद्वेद्यादि पुण्यं वन्यते । शेपंपापमिति।' अर्थ-सर्वविरत मुनि भी नापदार्थ, साततत्त्व,
इससे दो अनुमान किये जा सकते है। एक तो चैदह जोवसमास और चौदह गुणस्थानोका चिन्तवन श्वेताम्बर परंपरामे 'अशभः पापस्य' यह सत्र कसे करे। बना, इस पर भी इससे प्रकाश पड़ जाता है। मिद्ध- श्वेताम्बर परम्परामें सात तत्त्वोंका उल्लेख कहीं सेन गणिके सामने कदाचित यह प्रश्न रहा हो कि नहीं पाया जाता है। स्वयं श्रद्वेय पं. सुखलालजी 'शुभः पुण्यस्य' इस सत्रकी व्याख्यारूपसे भाष्यमें तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिकामें लिरते हैं:इमे कैसे स्थान दिया जा सकता है इस लिये उन्होने इस मीमांसा में भगवानने नवतत्त्वोंको रखकर इसे दमरा सत्र मान लिया हो । दूसरे स्वयं भाष्यकार इनपर की जाने वाली अचल श्रद्धाको जैनत्वक प्राथसंदेहास्पद हों कि इसे भाष्यमें स्थान दिया जाय या मिक शर्त के रूप वर्णन किया है। त्यागी या गृहस्थ पारिशेपन्यायकी मरगीके अनुसार अनुक्तके समुच्चयसे कोई भी महावीर के मार्गका अनुयायी तभी माना जा काम निकाला जाय। इस द्विधावृत्तिके कारण किसी सकता है जबकि उसने चाहे इन नवतत्त्वोंका यथेष्ट पुस्तकमे वह जुड़ गया हो और किसीमें न जुड़ा हो। ज्ञान प्राप्त न किया हो, तो भी इनके उपर यह श्रद्धा यदि यह दूसरा अनुमान ठीक हो तो यह विवादका रखता ही हो; अर्थात जिन-कथित ये तत्त्व ही सत्य सारा मामला समाप्त हो जाता है। तथा इससे यह हैं ऐसी रुचि-प्रतीति वाला हो। इस कारणसे जैननिश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि सूत्रकार और दर्शनमें नव तत्त्व जितना दृम्रे किसीका महत्व नहीं भाष्यकार ये अलग अलग दो व्यक्ति होने चाहिये। है । ऐसी वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वातिने सात तत्त्व और नौ पदार्थोके विषयमें दोनों अपने प्रस्तुत शाम्रके विपयरूपसे इन नवतत्त्वोंको
पमंद किया।"....... संप्रदायोंके आगमोंके प्रमाण पंडितजीके इस उल्लेखमे ही स्पष्ट हो जाता है कि अब हम दोनों सम्प्रदायके आगमोंके प्रमाण श्वेताम्बर परंपरामें नोपदार्थों को ही अपनाया गया है उपस्थित किये देते हैं, जिससे पाटकोंको इस विषयके मातको नहीं। आगम ग्रन्थों में भी नौपदार्थों का ही