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अनेकान्त
[वर्ष ५
बढ़ गए हैं। वहाँ 'एताति वा पंच ज्ञानानि' आदि इस मत्रका जो भाप्य माना है वह इसमे पहलेके सूत्र विकल्पान्तर नही सुझाया। भाप्यक टीकाकारोंने इस 'शुभः पुण्यस्य' का ही है इसका नहीं। उसम तो का एक समर्थन किया है। सिरसेन गणि लिखते हैं- पुण्यप्रकृतियोकी ही सूचना दी गई है इस लिये उसे
"सामान्येन विवक्षिता सतो सैकत्वमिव विभर्ति. चाथे सत्रका भाग्य कहना अमंगत है। तथा सारे मुख्यया तु कल्पनया वस्तुधमेवान प्रतिवस्तु भत्तव्या तत्त्वाथमत्रमें पृव मत्रमे जो विषय कहा गया है उससे भवति । तदा तु बहुवचनेनैव भवितव्यमेवेति ।" शेष रहे विपयका प्रतिपादन यदि पारिशेपन्यायमे हो
अर्थात-जीवादि अर्थो में रहने वाली स्वसत्ता जाता है तो भाग्यकार उसके लिये स्वतंत्र सूत्रकी जब सामान्यरूपसे विवक्षित होती हैं तब वह एक आवश्यकता नही मानते है जैसा कि उनकी क्थनश ली कही जाती है और जब मुख्य कल्पनासे विचार करते से मालूम पड़ता है। हरिभठमरिने अपनी टीकामें हैं तो वह वस्तुका धर्म होनेके कारण प्रत्येक वसुमें 'अशुभः पापस्य' इसे कई स्थान नही दिया अंर अलग अलग हो जाती है। अतः उस समय 'तत्त्व' इसके भाग्यको पूर्व स्त्रका ही भाष्य माना है । अतः पद बहुबचन ही होना चाहिये।
यही कहा जा सकता है कि यह भाज्यसम्मत मत्र नहीं यह तो स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसत्र में तत्त्वोंका प्रति- है। वह कब और कैसे जुड़ गया यह प्रश्न विचारण य पादन सामान्यरूपमे विवक्षित नहीं है, तभी तो उनके है जिस पर आगे प्रकाश डाला गया है। सात नाम गिनाये । पर सिद्धसेनगरिने भाप्यके उक्त हरिभद्रग्नेि 'शेपं पापमिति' इम प्रकार जो अंशका जो अभिप्राय निकाला है तदनुमार मूलसूत्रमें चौथामत्र माना है वह सिद्धम्न गएि की नीकामें तत्त्वपद एक वचनान्त अर बहुवचनान्त इसप्रकार भाग्यका अंश माना गया है । इससे इतना तो नि त दोनो प्रकारसे होना चाहिये । भाष्यकारक उक्त हो जाता है कि यह पाट भा-यसम्मत है। केवल भाज्यांशका यदि यही अभिप्राय मान लिया जाय तो विचारणीय यह रह जाता है कि यह सत्र है या नही। कहना होगा कि मूल सूत्रकार श्रर भाष्यकार ये एक पर इसका विचार करते समय हमें अाटचे अध्याय के व्यक्ति नहीं है, किन्तु भिन्न भिन्न हैं। स्वयं सूत्रकार 'श्रतोऽन्यत्पापमिति' इस पाठको भी सामने रख इस प्रकार प्रयत्न करेगा, यह विचारणीय हो जाता है। लेना आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि, भाष्यकार ___ इसीप्रकार छठे अध्यायके श्वेताम्बर-सम्मत सत्र- यहां जिस विषयकी सूचना ‘शेष पापमिति' पाट द्वारा पाठमें पुण्य पार पापविषयक दो सूत्र मने गये हैं. कर रहे हैं उसी विषयकी मचना वे बाट अध्यायमें जिनको क्रमसंख्या ३ ओर ४ है। पर पापविषयक 'श्रतोऽन्यत्पापमिति' पाठ द्वारा भी कर रहे हैं। सूत्रके विपयमे मतभेद है। सिद्धमेनगणिकी टीका- इसे सत्र मानने और न माननेके विषयमे तो नुसार तो 'अशुभः पापस्य' यह चोथा सूत्र होता है इतना ही कहा जा सकता है कि सर्वत्र भाप्यकारने और हरिभद्रसूरिकी टीकानुमार 'शेषं पापमिति' यह जो नीति अपनाई है तदनुसार यह भाष्यांश ही हो ना चौथा सूत्र होता है। इन दोनों सूत्रोंमेंसे किसी भी चाहिये । यदि यह स्वतंत्र सत्र माना जाय तो आटवें सूत्रपर भाष्य नही पाया जाता है, यह निश्चयपूर्वक अध्यायमें 'श्रतोऽन्यत्पापम्' को सूत्ररूपसे स्वीकार कहा जा सकता है, इस लिये यह निर्णय करना कटिन नहीं करनेका कोई सबल प्रमाण नही पाया जाता है। हो जाता है कि भाग्यकारने इनमेंसे किसे सत्ररूपसे मान्य न पाये जानेकी युक्ति दोनों सत्रोके लिये स्वीकार किया होगा । इस समय जो प्रमाण पाये समान है। जाते हैं उनके अनुमार विचार करनेसे तो यही प्रतीत सर्वार्थसिद्धिमान्य मत्रपाठ मूल है या नहीं इस होता है कि 'अशुभः पापस्य' यह भाष्यमान्यस्त्र विषयपर तो इस लेखमालाके अनन्तर फिर कभी नहीं है, क्योंकि, सिद्धसेनगणिने 'अशुभः पापस्य' प्रकाश डाला जायगा। पर दूसरे अध्यायके अन्तिम