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________________ तत्त्वार्थ सूत्रका अन्तःपरीक्षण द्वितीय लेख [ लेखक - पं० फुलचन्द्र जैन शास्त्री 30 तत्त्वार्थसूत्र यह नाम बतलाता हूँ कि इसमें तत्त्वार्थ"विषयक सूत्रोका संग्रह किया गया है। जिनागममें सात तर नौ पदार्थ कहे गये हैं। सात तत्त्रों का कथन करते समय पुण्य और पाप स्वतन्त्र नही गिने जाते, वे आम्रत्र और बन्ध में अन्तत हो जाते हैं । तथा नौ पदार्थोका कथन करते समय पुण्य और पाप आम्र और से अलग गिने जाते है । सान तत्त्व र नो पदार्थों की कथनी में यही अन्तर है । दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रचलित ग्रन्थोमे ये दोनों परं पराएं स्वतन्त्ररूपसे अपनाई गई है । पर श्वेताम्बर सम्प्रदायन पदार्थ विषयक परम्परा ही अधिकतर पाई जाती हूँ । सान तत्त्व-विपयक परम्परा तत्त्वार्थाfare सूत्रको छोड़कर अन्यत्र एक तो पाई नही जातो, पाई भी जाती है तो वह बहुत बाद के एक-दो ग्रन्थो में ही पाई जाती है । तालर्य यह कि सात तत्त्व विषयक मान्यताको श्वेताम्बर सम्प्रदायमं तत्त्वार्थसूत्र के बाद भी विशेष महत्त्व नही दिया गया है । सर्वत्र तत्त्व या तत्त्वार्थरूप नो पदार्थों का ही उल्लेख किया जाता हूँ । अतः इस विषयका साधार विचार कर लेना आवश्यक हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्रमे सूत्रकारने विवेचन करनेके लिए जो सात तत्त्व स्वीकार किए है उसपर किस सम्प्रदायको मान्यताका प्रभाव है। इस विचार के लिए निम्न विभाग आवश्यक प्रतीत होते हैं : (१) सूत्र, भाग्य और उसकी टीकाएँ । सूत्र. भाष्य और उसको टोकाएँ तत्त्वार्थसूत्रके पहले अध्याय के चथे सूत्रमें सात तत्त्वोंके नाम गिनाये हैं । इस सूत्रकी सर्वार्थसिद्धिकार और भाष्यकार ने जो व्याख्या की हूँ उसमे अन्तर है । उक्त सूत्रमें सूत्रकारने प्रथमपद बहुवचनान्त और द्वितीय (तत्त्वं ) पद एक वचनान्त रक्खा है। इसका सर्वार्थसिद्धिकारने 'विशेषण विशेष्य भावके रहते हुए भी कामचार देखा जाता है इस अभिप्रायानुसार समर्थन किया है । पर भाष्यकारने जो कुछ लिखा है वह भिन्न ही हैं। वे लिखते है "जीवा अजीवा आस्रवो वन्यः संवरो निर्जरा मोक्ष इत्येष सतविधोऽर्थस्तत्त्वम् । एतं वा सप्त पदार्थास्तत्त्वानि ।" विशेषण विशेष्यभावके रहते हुए कामचार (यथेच्छ प्रयोग ) को भाष्यकार भी स्वीकार करते है । भाष्यमे ऐसे अनेक स्थल पाये जाते है जहां द्विवचनाके साथ एकवचनान्त, बहुवचनान्तक साथ एक वचनान्त आदि प्रयोग किये गये है । इसलिए सूत्रमे जो कामचार है उसके निवारण के लिये भाष्यकार ' इत्येष' आदि कहते होगे यह तो कहा नहीं जा सकता है। फिर इस प्रयोगका क्या काररण हूँ यह विचारणीय जाता है। जहां तक शैलीके सम्बन्ध में विचार किया जाता है तो इसी प्रकार के अन्य सूत्रोपर लिखे गये भाष्यको देखने यही प्रतात होता है कि उनके प्रकृत लेखनसे शैलीका कोई सम्बन्ध नही है । उदाहरण के लिए (२) सात तत्त्व और नौ पदार्थों के विषयमे दोनों पहले अध्यायका ध्वां सूत्र ही ले लीजिये । वहां सम्प्रदायों के आगम-प्रमाण । भाष्यकार 'एतत्पंचविधं ज्ञानम्' इतना ही कहकर आगे
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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