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________________ किरण ३-४] क्षत्रचूडामणि और उसकी सूक्तियां १५७ शिक्षायचः सहनी क्षीण पुण्ये न धर्मधाः । अपनी रक्षा करनेके लिये साधारण मनुष्यको विशेष नीति पात्र त फायते तम्मान, आत्मैव गस्गत्मनः ॥२-५५ से काम लेना पड़ता है। इस विषयमें ग्रंथकार लिखते हैं: 'पुण्य .ण होने पर शिक्षाकी रजारों वाहों के द्वारा भी संमृती व्यवहारग्तु नहि माया-विवर्जितः ॥३-२७॥ धर्म में बुद्धि नहीं उत्पन्न होती। ये ही शिक्षाप्रद व.तं यदि संसारमे मायारहित न्ययहार नही पाया जाता। पात्र में पहुँचती हैं, तो वे वृद्धिको प्राप्त होती है। इस कारण प्राचार्य सोमदेवने यशस्तिलक (उत्तरार्ध पृ. १४५) धामाका गुरु बारमाही है।' में इस सम्बन्धमे और भी अधिक सुलासा किया है :बात वास्तव मे यह है कि यदि मनुष्य पात्र है-पुण्यवान् धुर्तेषु मायादिपु दुर्जनेषु स्वार्थकनिष्ठेषु विमानितेषु । है तो कल्याणप्रद बात उसपर असर करती है और यदि वर्तत यः साधुतया सलोक प्रतायते मुग्बमतिने केन ।१४५ व्यक्ति पुण्यहीन अपात्र है, तो वे ही अमूल्य उपदेश कार्य- अर्थात्-जोमोजामनुष्य धूलों, २ पटियों दुष्टो, स्वाथियों काली नही होते । इस का.ण श्राम के उद्वार वरनेमें बझ और अपमानितोंके साथ साधुतापूर्ण व्यवहार करता पदार्थोके स थ ने श्रारमशक्ति या सामर्थका विशेष स्थान है, व; किसके द्वारा नहीं ठगा जाता ? है । यदि तरंग पात्रता है, तो निमित्त कार्यवाती है, इसी बात समर्थन भारवि कविने अपने किरातार्जुनीय अन्यथा वह निष्फल सरीखा है। मे निम्न प्रका से किया है :यात्मीयताम अनुराग व्रजन्ति ते मृदाधियःभभवन्ति मायाविषये नमायिनः मनुष्यको यात्मीयता(अपनापन) से अधिक प्रेम रहता चे मूटमात अपमानको प्रात करते है. जो मायावी व्यक्ति है। संसारकी सारी समृद्धि भी यदि पास हो तो भी के साथ मायावी नही बनते हैं। अपने विनाशकी चिन्ताकालयी रह हृदयमे चभा करती है- दुनियामे परस्पर स्वरमा संघर्ष होता रहता है और पत्रमित्रानवाटो, सत्यामपि च संपदि। जो बलवान या अधिक योन्य होता है वही जीवित रहता आत्मीयामाय-शंका हि शंक प्राणभृतां हृदि ॥१-२४॥ है। Swurval of the fittest वाली बात सभी 'पुत्र मित्र, त्रीश्रादि तथा संपत्तिक होने पर भी गह चरितार्थ हो पाई जाती है । इसके सिवाय जिसकी अपने बिनाशकी आशंवा जीवधारियोंके हृदयमें शल्यके लाठी उसकी भय' वाली वृत्ति भी प्राय: देख्नेमे पाती है। समान पीडा देती है।' यह दुःन्दकी बात है कि लोग स्वार्थवश न्यायका श्रादर न करके यह मामीयता यदि किसी कार्यके सम्बन्धमें भी हो अपनेसे पमको यो कष्ट दिया करते है । इस विषयमें जाती है तो उसकी सफलता तकमे यह प्राणी यानन्दका प्राचार्य रहते हैअनुभव करने लगता है। इस बातको लेकर प्राचार्य महाराज दुबला हि बलिप्टेन बाध्यन्ते हन्त संसृती-११.३४ कहते हैं: 'दुःख है कि संसारमें दुबल प्राणी बलवानों के द्वारा श्रात्मकृतमकृत्यं च सफल प्रीतये नृणाम ||२-॥ पीड़ित किए जाते हैं।' 'अपने द्वारा किया गया अयोग्य वार्य यादे सफल हो बाह्य निमित्तका प्रभाव जाता है, तो लोगों को वह प्रीतिका कारण होता है।' फभी २ यह देखा जाता है कि लोग अपनी कमजोरियों एक दूसरा कवि भी इस बाराका समर्थन करता है:- को छिपाने के लिये यह कहते हुए देखे जाते हैं कि बाह्य कामयावी हो गई, तो बेवकूफी पर भी नाज़। वातोंमें क्या रखा है, अंतरंगकी श्रावश्यकता है। इसी विषय नाकामयाबी जो हई, तो अक्ल भी शर्मिन्दा है। में यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय, तो ज्ञात होगा __ व्यवहार नीति कि या निमित्त अंतरंग भावोंको उत्पन्न करने में काफी इस जगत में सजन और दुर्जनोंका समुदाय सहायक होते हैं। महाकवि वादीमसिंहने बताया है कि पाया जाता है । दुष्ट पुरुष अपनी अयोग्य चेटायों जब महारानी विग्याने अपने में ही संसारखी विचिनताका से साधुचरित्र व्यक्तियोंको पीडा पहुंचाया करते हैं इस लिये दर्शन करके विरक्त भावपूर्ण प्रार्यिकाकी दीक्षा धारण की,
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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