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________________ अनेकान्त [वर्ष ५ तब माता सुनंदाने भी उनका अनुकरण किया। इस कारण इसका कारण यह है कि ग्रासक्तिवश यह जीव पुरातन ग्रंथकार कहते हैं :-- इष्ट सामग्रीका जब स्मरण करता है, तब उनका प्रभाव पाक हि पुण्य-पापानां भवेत बाहाच कारण म॥११-१४|| इसे भयंकर दुःख देता है, और कालकेद्वारा इसके हृदयके पुण्य पाप के विपाक होनेमे बाह्य पदार्थ कारण होते हैं। जो घाव सूखम्मे जाते हैं, वे पुनः हरे हो जाया करते हैं और चित्तवृत्तिकी विचित्र दशा है. योगियों के चित्त तक में पुनः पीड़ा उत्पन्न करना शुरु कर देते हैं। कभी २ चंचलता उत्पन्न हो जाता है । बदे उदात्तचरित्र इस विषय में महाकवि शेक्सपियरने अपनी Memory व्यक्तियों के अंत:करणमे रागद्वेष उत्पन्न होकर विकृति नामक कवितामे इन भावपूर्ण शब्दो द्वारा प्रकाश डाला हैउत्पन्न कर देते हैं। फिर भी साधारण लोगोंकी अपेक्षा "when to the seasonut sweet stone thought _I summon up Temitmlrs of thingsast उनमें विशेषता क्यों रहती है इसका कारण यह है- I high the lot of mein uttons I ourint Then can I dron e 125ed to flow यदि रत्नपि मालिन्य नहि तन कृकशोधनम ||११-२०॥ For prestisfiends hid in death d.itelery night". यदि रत्नमे मलिनता उत्पन्न होती है, तो उसके शद्ध बड़े बड़े दुःखोगे भी यह मानव भूल जाता है. यदि करने में कठिनता नही पड़ती-प्रधान सरलतापूर्वक रत्नमें थोड़ी भी नवीन सुखकी प्राक्षि हो जाय । से मलिनता दूर की जा सकती है। विस्मृतं हि चिरं मुन दुःख म्यात सुख-लाभतः ।।-११ इसी प्रकार महान् श्रा.मात्रामसे विकार भी सरलतामे रागभाव दूर किया जा सकता है। __ मोह और ममताके कारण यह थारमा अपने त्वरूपको विषयासक्त व्यक्ति अपने इष्ट पदार्थ प्राप्त करनेमें समझ नदी पाता और इससे अपनी दुर्गतिकी साधनदीनवृत्ति धारण कर लिया करते हैं, किन्तु जितेन्द्रिय पुरष सामग्रीको एकत्रित किया करता है। इस कारण तवज्ञानी की स्थिति निराली होती है प्राचार्य महाराज बहुत गहरे अनुभवकी यह चिरस्मरणीय वांश्रिताप कानय वशिनां नहि दृश्यते ॥ --५३॥ शिक्षा देते हैं : श्रथ त्-जितेन्द्रिय पुरुष अपने मनोवांछित पदार्थ तक तीरस्थाः खलु जीवन्ति, न हि रागाब्धिगाहिनः । -१ में दीनभाव नही धारण करते। थात्-रागरूप समुद्र के तटपर रहने वाले तो कौन नहीं जानता कि संसारमै स्नेहका बन्धन सबसे जीवित रहते हैं, किन्तु उस समुद्र में प्रवेश करने वाले नहीं। ज़बरदस्त होता है। इसी कारण जिनेन्द्र भगवानको वीत. कदाचित् पोई यह सोच कि रागादिके द्वारा ही मैं राग शब्दमे संबोधित करते हैं, जिसमे उनकी महत्ता हृदय संसारके परिभ्रमण तथा दुःखाका नाश करूँगा, तो इसके पटल पर अंकेत हो जाती है। समाधानमें ग्रंथकार कहते हैं___ स्ने-बंधन के विषयमे महायवि लिखते हैं ग्रंथानुबंधी संसारस्तंनैव न परिक्षयी। स्नेह-पाशो हि जीवानामासमारं न मुचति ।।८-२२॥ रक्त न दूपितं वत्र न हि रक्त न शुध्यति ।। ६-१७ 'प्रेमका यन्धन जीवोंगो संसारपर्यन्त नही छोड़ता है। रागादि दोषों तथा बाध परिग्रहों के सम्बन्धमे तो यह इसी स्नेहके कारण बलभद्र जैसे महानुभाव नारायण के संसार है, उस परिग्रहके द्वारा इसका विनाश नही होगा। प्राणहीन शीरयो जीवित समझकर बहत समय तक लिए. खूनसे मलिन कपड़ा खूनमे शुद्ध नहीं होता। लिए फिरते हैं। बड़े २ ज्ञानियों तकको यह प्रेमका बन्धन * जब मं मधुर तथा प्रशान विचारका बैठकोंमें प.तन मोह जालमे फंसा देता है। और उस इष्ट पदार्थ के वियुक्त पदार्थोकी स्मृतियोको अामात्रा करना है, तब मैं उन होने पर उसकी स्मृति अत्यन्त संतापजनक होती है- अनेक वस्तुग्राम अभाव मे दु:भरी माम छोड़ता हूं, ध्यातेपि पुरा दुःखे भृशं दुःखायते जनः ।। ८-१३॥ निनको मैं रोप था। तब में मृत्युकी अमर्या.दन रात्रि इसका भाव यह है कि पूर्वदुःखका ध्यान करने मात्र में छुरे हुए अमूल्य मित्रोक लिए श्रमपात करने में से यह प्राणी तीव्र पीदाका अनुभव करता है। अभ्यस्त अपने नेत्रको सार्द्र कर सकता हूँ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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