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किरण ३-४]
क्षत्रचूड़ामणि पार उसकी सूक्तियाँ
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जिस प्रकार विही बर्षमे करता तथा कुटिलता पयंय- वाधकं हि चिरक्तये ॥ १-१॥ जनित होती है, वह उसका निसर्गग धर्ममा है, उसी मक्षिकापवतं.प्रच्छ मांमान्छादनचर्मणि । प्रकार भोगादिवम इस प्राणीकी बिना सिखाए ही प्रवृत्ति लावण्यं भ्रान्तिरित्यतन्मूढ यो पक्ति वाधकम ।।-१२॥ होती है। माहारादक सिखाने के लिए कोई स्कूली 'मक्खी के पखंस भी पतले मासके दाने वाले उमदे में शिक्षाको आवश्यकता नही पड़नी बल्कि अपने आप ही लावण्यकी कल्पना भ्रम है, यह बात बुढ़ापा मूढजनोंको जीवकी उस घोर प्रवृत्ति होती है। इससे प्राचाय कहते हैं:- बतलाता है।' समारविपये मद्यः स्वतो हि मनसागतिः ।। --- हन्त ल को वयस्यन्ते किमन्यैरपि मातरम ।
'संसारक विषयों में शीघ्र ही अपने आप मनकी प्रवृत्ति मन्यते न तृणायापि मृतिः श्लाघ्या हि बाधकान।-१४ होती है।
'दुःश्वकी बात है कि लोग अपनी माता तकयो बुढ़ापा स्वप्न-विज्ञान
मानाने पर निनके बगबर भी नहीं सम ने अन्य की तो महर्षि जिनसेनने अपने प्रादपुराणमें बताया है कि बात ही क्या ? अतः बुटापेमे तो मृाही प्रशसनीय है।' जो स्वप्न वातादि दोपके बिना रात्रिके अन्तिम प्रहम्मे वृद्धावस्था में क्या करना चाहिये इस विषय में ग्रंथवार दिखाई देते हैं, वे फलवान होते है। इसी प्रकार महाकवि कहते हैं :बादीभसिंह भी लिखते है
वयस्यन्तपि वा दीक्षा प्रेक्षाद्रपेदयताम । अस्मानपूर्व हि जोवानां नहि जानु शुभाशुभम ॥
भन्मने ग्लहारीयं पहिनहिनते ॥ ११-१८ ।। 'प्राणियों के शुभ-अशुभ बिनास्वप्न के नही पाए जाते।' बुढापेमे भी विवेकी पुको दीक्षा लेना चाहिये। उदारता
विद्वान् पुरुष रनके हारको गखके लिए दग्ध नही करते । संमारके लोगो आनंद अपनी तृष्णाके पूर्ण होने में
पात्रता प्रात हुया करता है, किन्तु महान प्रामाओं को पदार्थों के इस विषयमे ग्राचार्य महाराज कहते हैघाग काने शाते मिना करती है। प्राच यं कहने हैं- पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यांति हि संपदः। नादान किन्नु दाने हि सतां तुष्यति मानमम ॥७-३०॥ जो अपनी प्राग्माको पात्र बना लेता है उसके समीप
'स गुरुपोंका अंत:करण दान देनमे प्रानंदित होता है, में सपत्तिा स्वयमेव पाती है।' संग्रह करनेमे नहीं।'
___तापर्य यह है कि योग्यता लाभ करने वालोंको बिना प्रतिटिन पुरुष यदि गरीयोंको कुछ द्रव्य न देकर प्राकाहाके ही मनोवांछित वस्तुका लाभ होता है। केवल प्रेत (र्ण वचनालाप कर लेते हैं तो यह छोटे व्यक्तियों प्राचार्य महाराज लिखते हैं कि मुग्यके देखनेसे अंतरंग के लिए राज्याभिषेक के नुल्य होता है
हृदयकी बातोंका पता चल जाता है।मुग्वदानं हि मुख्यानां लघूनामभिरेचनम ॥ ७-६॥ वक्त्रं वक्ति हिमानमम । चतुर पुषों के लिए ग्रंथकार यह शिक्षा देने हैं:
इस प्रकार पूर्ण ग्रंथका पर्यालोचन करनेपर अत्यंत चतुराणां स्वकार्याक्तिःस्त्रमुग्वान्नाहि वर्तते ॥८-२३॥ उपयोगी एवं कल्याणकारी सूफियाका भडार पाया जाता
'चतुर लोग अपनी कृतिका वर्णन अपने मुखसे नहीं है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति ग्रंथके अध्ययनके अनंतर इस किया करते।'
सायका हृदयमे समर्थन करेगा कि, चूडामणि संस्कृत वृद्धावस्था
साहिपकी एक अनूठी रचना है। जिस बुढापेमें मनुष्यही तृष्णा अधिक बढ़ती जाती है महृदय विद्वानोंका वर्तव्य है, कि इस रचनाका अध्ययन और अंगप्रत्यंग शिथिल होते हैं उसके विषयमें प्राचार्य करें, और विश्वविद्यालयोंके पठनक्रममें रखकर इसके महाराज बताते हैं कि-बुढ़ापा तो विरक्तिके लिए है।' प्रचारको व्यापक बनावे ।