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________________ १५६ अनेकान्त अर्थात् भीरु पुरुष अपनी पानेके पूर्व अनेकवार मृत्यु मरण करते हैं, किन्तु वीर पुरुष मृत्युका स्वाद केवल एक बार चखते हैं इसी बात को हृदयमें रखकर मजबूत अंतः करण वाले भयंकर से भी भयंकर पीड़ा आने पर अपने पुरुषार्थमे विमुख नहीं होने सत्यामप्यभिपंगाती जागव हि पीरूपम् । १२८ संक्ट में निर्भयता धारणकर पुरुषार्थ करनेका जो परिणाम होता है उसकी ओर श्राचार्य इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं- 'सत्यापि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् । ३-१० श्रर्थात् श्रायु कर्म के बाकी रहनेपर प्राणियों के प्राणों की रक्षा होजाती है । यदि संकटमें तवज्ञान-निधि विद्यमान हैं, तो वह सुमीत बढी विभूतिके रूपमें परिणत हो जाती है इस बातको बतलाते हुए श्राचार्य महाराज लिखते हैदुःखापि सुख्यार्थी हिने मति ३-२१ अर्थात् -- तत्वज्ञान-धनके पास रहनेपर दुःखकी सामग्री सुखका कारण हो जाती है। | शेक्सपियर ने भी As you like it नामक नाटक में लिखा है कि Sweat are the uses of adversity । 'कष्टका परिणाम मधुर होता है (यदि विवेक जागृत रहे। यदि मनुष्य पवित्र कार्योंको करता हुआ। पुण्य संपादन करले, तो उसके पास आपति कभी भी नहीं था। इस कारयण आचार्य कहते हैं [ वर्ष ५ विचित्रताका सुंदरभाव कविवर भूधरदासकी इन पंक्तियोंमें निहित है--- का घर पुत्र जायो, काके वियोग भयो, काहू रागरंग, काहू रोधरोई करी है। ऐसी जगरीतिको न देख भय-भीत होन हाहा नर मूढ तेरी बुद्धि कौन हरी है मानुष जनम पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करोरनकी एक एक घरी है। इस भावको महाकवि वादीभसिंह इन शब्दों में समझाते है: न हि वेद्यो विपत्रः । ३-१३ । इसका तात्पर्य यह है कि किस समय विपत्ति श्राजाय, यह नहीं कहा जा सकता। सचमुच में यह कौन जानता था कि रूस के सम्राट जारके दिन जो अत्यन्त चैनमे बीत रहे थे, उनका अचानक अन्त श्राजायगा तथा उसे नारकीय यातनाओं के साथ अपने जीवन की अन्तिम घड़ियां गिननी पड़ेगी । भाग्ये जागृति का व्यथा (१-१८) भाग्य यदि जागृत है तो फिर क्या कष्ट हो सकता है ? श्मशान मे जिस प्रकार क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, उस प्रकार दु:खकी चिता भी क्षणभर रहती है । दुःख के दूर होते ही, या उसके मंद होनेपर लोग उसे भूल जाते हैं और अपने कल्याणकारी उपायमे विमुख हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में श्राचार्य कहते हैं 'दुःख चिंता हि तत्क्षणे ' । १-३२ - इस प्राणी के भाग्यचक्रकी गति यदी निराली है भरमें राजासे रंक अथवा रंकसे राजा बन जाता है। इस - अविवेकी व्यक्तियोंकी श्रादत रहती है कि वे सत्पुरुषों की बातों पर पूर्व विश्वास नहीं करते हैं, किन्तु ठोकरें खाने के बाद उनको अक्ल श्राया करती है । श्राचार्य महाराज कहते हैं :-- विपाके हि सतां वाक्यं विश्वमन्पविवेकिनः ।। १-३५।। महाकाल कृता वांद्रा संपुष्णाति समीहितम् | किं पुष्पावयः शक्या फल काले समागते ॥१-३६।। 'अविवेकी लोग सरुपुषोंके वाक्योंपर उनके फलित होने पर विश्वास करते हैं ।' 'समयमें की गई अभिलाषा मनोकामनाको पूर्ण नहीं करती है । भला फलके समय श्राजाने पर क्या पुष्पोंका संग्रह संभव हो सकता है ?' आत्मोद्धार महाकवि इस बातका कारण बताते है कि अनेक उपाय करनेपर भी बहुतसे व्यक्तियोंका ध्यान कल्याणके मार्गकी ओर श्राकर्षित नहीं होता । देखिये वे क्या कहते हैं :
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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