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किरण १०११]
सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव
"मैंने अकलंकअन्यत्रयके ही प्राक्कथनमे विद्यानन्दकी परिवर्तनोके साथ दिया हुआ है और वहाँ किसी 'प्रास्कश्रामपरीक्षा एवं असहनीके स्पष्ट उल्लेखों के श्राधारपर यह यन' को देखनेकी प्रेरणा भी नहीं की गई। अच्छा होता नि.शंक रूपसे बतलाया है के स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके यदि 'भास्कर' वाले लेखमे भी किमी प्राकथनको देखनेकी प्राप्तस्तोत्रक मीमामाकार है अतएव उनके उत्तरवर्ती ही हैं।"
प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुम्बलालजीके तर्कको उन्ही 'ठीक उभी तरहसे समन्तभद्रने भी पूज्यपाद के मोक्ष
के शब्दोम रक्खा जाता और या उसे डबल इनवटेंड मार्गस्य नेतागम्' वाले मंगनपद्यको लेकर उनके ऊपर
कामाक्षके भीतर न दिया जाता । श्रस्तुः इस विषयमे पं. श्राप्तमीमामा रची है।
मुम्बलालजीने जो तर्क अपने दोनों प्राक्कथनोमें उपस्थित "पूज्यगदका मोक्षमार्गस्य नेतागम्' वाला सुप्रसन्न पद्य
किया है उमीके प्रधान अंशको ऊपर माधन नं.२ में
मंकलिन किया गया है, और उममें पंडित जीके, ग्वाम शब्दो उन्हें (समन्तभद्रको) मिला फिर तो उनकी प्रातभा और
को इनवटेंड कामालके भीतर दे दिया है । इससे पडितजी जग उठी।" -न्यायकुमुद द्वि०प्रकथन पृ० १७-१६
के तर्ककी स्पिरिट अथवा रूपरेवाको भले प्रकार ममका इन वाक्यापरसे मुझे यह जानकर बड़ा ही श्राश्चर्य
जा सकता है। पंडितजींने अपने पहले प्राक्कथनमे उपस्थित होता है कि पं० सुम्बलालजी जैसे प्रौढ विद्वान् भी कच्च
नर्ककी बाबत दूसरे प्राक्कथनमे यह स्वय स्वीकार किया है
कि-'मेरी वह (ममभंगी बाली) दलील विद्यानन्द के स्पष्ट अाधारी पर ऐमे मुनिाश्चन वाक्योका प्रयोग करते हुए देग्वे जाते हैं ! सम्भवत: इमी नहमे कोई गलन धारणा है।
उल्लेख के आधार पर किए गए निर्णयकी पोषक है। और
उमे मैंने यहाँ स्वतन्त्र प्रमाणके रूपमे पेश नहीं किया है।" काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्दने
परन्त उक्त मंगलश्लोकको 'पृज्यपादक्त' बतलाने वाला जब प्राप्तपरीक्षा और अष्टमहरीम कही भी उक्त मंगलश्लाकके
निद्यानन्दका कोई स्पष्ट उल्लेख है ही नही और उमकी पूज्यपादकृत होनेकी पान लिम्बी नहीं नब उसे 'सर्वथा स्पष्ट
कल्पनाके अाधार पर जो निर्णय किया गया था वह गिर रूपसे लिख" बतलाना कैस बन सकता है ?" अस्तु ।
गया है तब पोषक म्पम उस्थित की गई दलील भी व्यर्थ अब रही दूसरे साधनकी बात ६० महेन्द्रकुमारजी दम विषयमें पं. सुग्वलालजीके एक युक्ति-वाक्यको उद्धृत
पड़ जाती है क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही जिस लेप
लगाकर पष्ट किया जाय तब लेप व्यर्थ ठहरता है-उसका करते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जन
कुछ अर्थ नही रहता। और इमलिये पंडितजीकी वह दलील मिद्धान्तभास्कर वाले लेग्बके अन्त में, लिम्बते हैं
विचार के योग्य नहीं रहती। "श्रीमान् पंडित सुम्बलालजी सा० का इस विषयम यह नर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होने, नो ममन्तभद्र
यद्यपि, प. महन्द्रकुम्गर के शब्दोंमे, "मे नकागकी प्राप्तमीमामा जैमी अनूठी कृतिका उल्लेग्व अपनी
त्मक प्रमाणोंमे किमी प्राचार्य के ममयका म्वनन्त्रभावस मर्वार्थमिद्धि श्रादि कृतियोम किए बिना न रहने" हृदयको
साधन-बाधन नहीं होना" फिर भी विचारवी एक कोटि लगना है।"
उपस्थित होजाती है। मम्भव है कल को पं० सुम्बलाल जी
अपनी दलीलको स्वतन्त्र प्रमाण के रूपमं भी उपस्थित करने इममें पं. सुम्बलाल जीके जिम युक्ति-वाक्यका इरल
लगं, जिमका उपक्रम उन्होंने "समन्तभद्र की जैनपरम्पराको इनवटेंड कामालके भीतर उल्लेख है उसे 4 महेन्द्रकुमार
उम ममयकी नई देन" जैसे शब्दोको बाद मे जोड़कर किया जीने अकलंकग्रन्थत्रय और न्यायमुद्र चन्द्र द्वि० भागके
है शोर माश ही 'समन्तभद्र की अमाधारण कृतियोका किमी प्राक्कथनामे देखने की प्रेग्णा की है, तदनुसार दोनो प्राक्कथनोको एकमे अधिक बार देखा गया परन्तु ग्वेद है कि “यथा—“यदि समन्तभद्र पूज्यपदके प्राक्कालीन होते नोव उनमे कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ ! न्याय- अपने इस युगप्रधान प्राचार्यकी भाममीमामा जैमी अनटी कुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनामे यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्द. कृतिका उल्लेख किये बिना नही रहने।"