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________________ ३४६ अनेकान्त [वर्ष ५ भी" नही पाया जाता, अतएव समन्तभद्र पूज्यपादके बन्द पड़ी। और इमलिये उक्त मंगलस्तोत्रको पूज्यपादकृत "उत्तरवर्ती ही है। मानकर तथा समन्तभद्रको उमीका मामासाकार बतला कर इन दोनो माधनोंमेसे प्रथम माधनको कुछ विशद नथा निश्चितरूपम समन्तभद्रका पूज्यपादके बादका (उत्तरवर्ती) पल्लवित करते हुए पं. महेन्द्रकुमारजीने जैनसिद्धान्तभास्कर विद्वान् बनलानरूप कल्पना की जो इमारत खड़ी की गई (भाग : कि.१) में अपना जो लेग्व प्रकाशित कराया था थी वह एक दम धराशायी हो गई है। और इसीसे पं. उसमें विद्यानन्दकी श्रातपरीक्षाक "श्रीमतत्त्वार्थशास्त्राद्भुत- महन्द्रकुमारजीको यह स्वीकार करनेके लिये बाध्य होना सलिलनिधेरिद्धग्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भव ाले” इत्यादि पद्म पड़ा है कि श्रा० विद्यानन्दने उक्त मंगल श्लोकको सूत्रमार को देकर यह बतलाना चाहा था कि विद्यानन्द इसके द्वाग उमास्वाति-कृत बतलाया है, जैसाक अनेकान्त की पिछली यह सूचित कर रहे हैं कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि किरण में 'मोक्षमार्गस्य नेताग्म्' शीर्षक उनके उत्तर लेम्वमे जिस मंगलम्तोत्रका इममे मंकेत है उसे तत्त्वार्थशारकी प्रकट है। इस लेग्बम उन्होंने अब विद्यानन्द के कथनपर उत्पत्तिका निमित्त बतलाते समय या उमको प्रोत्थान-भूमिका सन्देह व्यक्त किया है और यह साचत किया है कि विद्याबाँधते समय पूज्यपादने रचा है। और हमके लिये उन्हे नन्दने अपनी श्रष्टसहस्रीमे अकलंककी श्रष्टशताक 'देवागमे'प्रोत्यानारम्भकाले' पदकी अर्थ-विषयक बहुत कुछ ग्वीचतान त्यादिमगलपरस्मरम्तव' वाक्यका सीधा अर्थ न करके कुछ करनी पड़ी थी, 'शास्त्रावताररचिनस्तुति' नया 'तत्त्वार्थशा गलती खाई है और उसीका यह परिणाम है कि वे उक्त नादौ' जैसे स्पष्ट पदोके सीधे सच्चे अर्थको भी उमी प्रोत्थाना- मंगलश्लोकको उमास्वानिकी कृति बन्ला रहे हैं, अन्यथा रम्भकाले पदक कल्पित अर्थको ओर घसीटनेकी प्रेरणाके लिये उन्हे इसके लिये कोई पूर्वाचार्यपरम्परा प्राप्त नहीं थी। प्रवृत्त हाना पड़ा था और स्वीचतानकी यह सब चेष्टा पं० सुरव- उनके इस लेखका उत्तर न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीने लालजीके उस नाटक अनुरूर थी जिसे उन्होने न्यायकुमुद- अपने द्वितीय लेखम दिया है, जो इसी किरणमे अन्यत्र, चन्द्र-द्वितीय भागके 'प्राक्कथन' (पृ. १७) मे अपने बुाद्ध- तितार्थसूत्रका मंगलाचरण' इम शार्पकके साथ, प्रकाशित व्यापारके द्वारा स्थिर किया था। परन्तु 'प्रोत्यानारम्भकाले' हो रहा है। जब पं० महेन्द्रकुमारजी विद्यानन्दके कथनपर पदके अर्थकी खींचतान उमी वक्त तक कुछ चल मकनी थी मन्देह करने लगे है तब वे यह भी असन्दिग्धरूपमे नहीं जब तक विद्यानन्दका कोई स्पष्ट उल्लेख इस विषयका न कह मकेंगे कि ममन्तभद्रने उक्त मंगलस्तोत्रको लेकर ही मिलता कि वे 'मीक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्नात्र प्राप्तमीमासा' रची है, क्योकि उमका पता भी विद्यानन्दके को किमका बतला रहे हैं। चुनाचे न्यायाचार्य प० दरबारी प्राप्तपरीक्षााद ग्रन्थोस चलना है। चुनाचं वे अब इमपर भी लालजी कोठिया और पं० रामप्रसादजी शास्त्री आदि कछ सन्देह करने लगे है, जेमाकि उनके निम्न वाक्यमे प्रकट हेविद्वानोने जब पं० महेन्द्रकुमारजीक भूलों तथा गलतियांका “यह एक स्वतन्त्र प्रश्न है कि स्वामा ममन्त भद्रने पकड़ते हुए, अपने उत्तर लेखो द्वारा विद्यानन्दक कुछ 'मोक्षमागस्य नेतारम्' लोकपर प्राप्तमामासा बनाई है अभ्रान्त उल्लेखोंको सामने रखा और यह स्पष्ट करके या नहीं।" बतला दिया कि विद्यानन्दने उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार ऐसी स्थितिमें पं० सुम्बलालजी द्वाग अपने प्राक्थनो उमास्वातिकृत लखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मगला- में प्रयुक्त निम्न वाक्योका क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञ पाठक चरण बनलाया है, नब उम ग्वीच-तानकी गति रुकी तथा स्वयं समझ सकते हैं“श्रीमत्तवार्यशालाक्तसलिननिधेरिखरनोनयस्य " 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तके समर्थनम ही उन्होने प्रोत्यानारम्भकाले सकतमलभिदे शासकारैः कृतं यत् । (ममन्तभद्रने) श्राप्तमीमासा लिम्बी है' यह बात विद्यानन्दने स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृषितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तन आप्तपरीक्षा तथा अष्टमहस्रीमे सर्वथा स्पष्टरूपसे लिखी है।" विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाण्यार्य सिद्धार्थ १२३ -अकलंकग्रन्थ त्रय, प्राक्कथन पृ०८
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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