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सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव
[सम्पादकीय]
'सर्वार्थमिद्धि' प्राचार्य नगास्मति (गृध्रपिच्छाचार्य) के सम्बलालजी सघवी, काशी और उसे गति प्रदान करने वाले तस्वार्थ मृत्रकी प्रसिद्ध प्राचीन टीका है और देवनन्दी अपर- है न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी शास्त्री. काशी। पं० सुखनाम पूज्यपाद श्राचार्यकी काम कृति है, जिनका समयम- लालजीने जो बात अकल्क ग्रन्थरके 'प्राथन' मे कही तौरपर ईमाकी पांचवा श्री. वि. की छठी शताब्दीमाना ज ता उसे ही अपनाकर तथा पट बनाकर पं. महेन्द्रकुमारज ने है। दिगम्बर समाज की मान्यानुसार श्रा० पूज्यपाद स्वामी न्यायव मुदचन्द्र द्वि० भागकी प्रस्तावना, प्रमेयकमलमार्तण्ड ममन्तभद्रये बाद हुए हैं, यह बात पट्टाईल यामे ही नहीं किन्तु की प्रस्तावना और जैनमिडानभास्करके 'मोक्षमार्गस्य अनेक शिलालेग्योम भी जानी जाती है। श्रवणबेलगोलके नेतारम' शीर्षक लेग्यमे प्रकाशित की है। चुनोचे पं० सुखशिलालेग्ब नं. ४० (६४) में प्राचार्योके वंशादिकका लालजी, न्यायकुमुद चन्द्र द्वितीय भागके 'प्रक्कन' मे पं. उल्लेख करते हुए ममन्तभद्रक पारचय-पदा के बाद 'ततः' महेन्द्रकुमारजीकी कृतिपर सन्तोष व्यक्त करते हुए और उसे (नत्यश्चात् )शब्द लिवकर 'यो देवनन्द। प्रथमाभिधानः' अपने मिक्षिम लेम्बका विशद और सबल भाप्य' बतलाते इत्यादि पद्योके द्वारा पृज्यपादका पारचय दिया है, और हुए लिग्बत हैं-'40 महेन्द्रबुमार ने मेरे संक्षिप्त लेस्व नं० १०८ (२५८) के शिलालेग्नमें समन्तभद्र के अनन्तर काविशद और मबल भाग्य करके प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना पूज्यपादके पारचयका जो प्रथमपद्यदिया है उर्गम 'ततः'
(पृ. २५) मे यह अभ्रान्तरूपसे स्थिर किया है कि स्वामी शब्द का प्रयोग किया है, और इस तरहपर पूज्यपाद को
समन्तभद्र पृज्यपाद के उत्तरवर्ती है। ममन्तभद्र के बादका विद्वान सूचित किया है। इसके मिवाय,
इस तरह पं. सुग्बलालजीको ५० महेन्द्रकुमारजीका स्वयं पूज्यपादने अपने 'जैनेन्द्र' व्याकरण के निम्न स्त्रमे
और पं. महेन्द्र कुमार जीको पं० मुम्यलालीका इस विषय ममन्तभद्रके मतका उल्लेग्व किया है
म पारम्परिक समर्थन और अभिनन्दन प्राम है-दोनो ही "चतुष्टयं समन्तभदस्य।" -५-४-१६८ विद्वान इम विचारधाराको बचाने में एकमत है। अस्तु ।
इम सूत्रकी मौजूदगीम यह नहीं कहा जा सकता कि इम नई विचारधागया लक्ष्य है ममन्तभद्रयो पृज्यपाद समन्तभद्र पूज्यपाद के बाद हुए हैं, और न अनेक कारणों के बादका विद्वान् सिद्ध करना, और उसके प्रधान दो के वश में प्रक्षिम ही बतलाया जा सकता है।
मावन हैं जो संक्षेपमे निम्न प्रकार हैपरन्तु यह मब कुछ होते हुए भी और न उल्लेग्यो (१) विद्यानन्दकी श्रामपरीक्षा और सहलीके उल्लेबी को असत्यताका कोई कारण न बतलाते हुए भी, किमी परमे यह 'म्यथा म्पष्ट है कि विद्यानन्दने 'मोक्षमार्गस्य नेनागलत धारणाके वश, हालमे एक नई विचारधाग उपस्थिर रम' इत्यादि मंगलम्तात्रको पृज्यपादक्त मचित किया है
की गई है, जिसके जनक है प्रमुग्ब ३० निद्वान श्रीमान प. और ममन्तभद्रको हमी श्रासम्तोत्रका 'मीमासाकार' लिखा *श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपाद । है, अनाच मानभद्र पृज्यपाद के "उत्नम्वनी ही" है। यदीयवैदुप्पगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि ततानि (२) यदि एज्यपद स्मन्नभद्र के उत्तग्बती होने तो वे x देग्यो, 'ममन्तभद्रका समय और डा.क.बी. पाठक ममन्तभद्रकी अमाधारण कृतियोका और स्वासकर 'सममगी' नामका मेरा वह लेम्ब जो १६ जून-१ जुलाई मन १६३४२.
का, “जोकि ममतभद्रकी जैनपरम्पको उम ममयकी नई 'जैन जगत्' (पृ०६ से २३) में प्रकाशित हुश्रा है अथवा
देन नही," अपने 'सर्याधीमद्धि' श्रादि किसी ग्रन्थमं 'उप"Samantabihndia date and D Pathat" योग' किये बिना न रहने । चक पूज्यपादके अन्योंमे Anmals of R.ORI. Vol xv PM. I-II P.67.66. "समन्तभद्र की असाधारण कृतियाँका किसी अंशमें स्पर्श