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________________ किरण ३-४ ] हमें न जा सका ! दन्त-पंक्तिने जो उसकी सहायताका वचन दे रखा था ! संकट का समय कुरंगी कुझलाहट सीमा पार कर गई। रोटी पटक, लगा बेदर्दीक साथ जागराको मारने-पीटने ! वह अल ! सहतो रही सारे प्रहार ! स्त्री जो ठहरी, पुरुषको दासी ! चोटी पकड़कर, धक्के, मुक्के, घूँसे, चाँटे, देर तक यही होता रहा ! सहज ही कोई न हारा ! कुरंग अपनी जिद पर था, और जागरा अपने प्रण परजान देने तक पर तुली हुई ! कुरंग चाण्डाल था, लेकिन इस वक्त होरहा थानारकी । मुँह धारावाहिक गालियाँ बरसा रहा था ! संकट का समय [ श्री 'भगवत्' जैन ] 'प्रारण ही क्यों न ले लो - मालिक ! पर, रातमें न खाऊँगी मै ! प्रतिज्ञा ले चुकी हूँ, उसे छोडूंगी नहीं ! कभी नही, हरगिज नही !' घी ठंडा था, पर आग और भी धधक उटी ! छुरी निकाल दुष्ट ने जागरा के पेट में घुसेड़ दी !!! खून मे जमीन नहा गई ! लाश तड़प कर टन्डी होगई ! खूनी रो उठा-'हाय ! यह क्या हुआ ? X X X X कुछ दिन बाद ! धनमती ने एक कन्या प्रसूतकी ! नाम रक्खा गया— 'नागश्री !' बड़ी सुन्दर, बड़ी मोहक बड़ी गुणवती !! तपाधन ऋषि ने बतलाया - नाग श्री पहले जन्म मे 'जागरा' थी ! घोर संकटका समय है ! पुण्य पद-पद हारना है. पापको होती विजय है ! घोर संकEET समय है !! पनपता है नरक, दुनिया सानवोंकी याज फीकी ! हो नहीं पानी जग-सी बात भी सोची किसीकी !! मानसिक अनुभूतियों पर हो चुकी ऐसी प्रलय है ! घोर संकटका समय है ! शोक ! अपनेपर नहीं बाकी रहा अधिकार अपना ! फिर किसे अपना कहें, फिर किसे हम प्यार अपना ?? १३३ आज अपनी श्रात्मासे ही नहीं मिलता अभय है ! घार-संकट का समय है ! पतन, जीवन वन चुका उत्थानकी श्राशा निरोहित ! मि का भूला, हलाहल पर हुआ है चित्त मोहित !! है नहीं पोषण कहीं पर घूमना सर्वत्र क्षय है ! घोर संकट का समय है ! बेखबर अपने श्रहिनसे, छोरहा है मूह मानव ! कौन जानें, पायगा स्वातंत्रमय चैतन्यता कब ? आज तो परतंत्रता का विश्व भर में अभ्युदय है !! घोर संकटका समय है !!
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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