SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ अनेकान्त [वर्ष ५ तक?........ उसके मनकी शल्य-भीतरका सन्देह निकल 'देखलिया सब ! कहाँमे लगा लाई भूत यह गया! वह उठ बैठी! न जानें शरोरमे कमी सिंह- अपने सिर ? एक रात रही बाजारमे कि बन आईरन-सो हान लगी थी, रोम-रोम तन उठा था! बननी ! अपने बुलकी मर्याद तोड़ती हे बे-शउर ! वाली-'मॉ! बच्चा है नासमझ ! खान सोने पुरखो तकन रातक खान कभी ऐव नहीं निकाला, दो उसे ! बड़े होनेपर धर्म-पालन कर लेगा! तेरे लिये आज पाप ह उस !-क्यो ? अरे, यह धनमती हसी! ता सब ऊँच जातमे चलता है, हम चाण्डालामें फिर समझाया--'बेटी ! धर्म हमेशाकी वस्त कभी नही चला-समझी ?'-कुरंगने जैसे बड़ी उसके लिए वक्त मुफ़रिर नहीं करना चाहिए ! क्या समझदारी के साथ कहा! अलबत्ता स्वर जरा तीव्र पता, गई सॉस वापस लाटे, न लाटे ? मात, जिन्दगी । हो श्राश था! को दुश्मन है, उम्रकी नही!' ___ 'च अपने कर्मोमे ही तो बनते है। पाप करते जागराको जीवन-धारा बदलने लगी ! मनमें रहोगे, तो कभा ऊँच नहीं बन सकोगे-मालिक ! उजला-सा आता मालूम देने लगा उसे !--अन्धेरा हमारे कोन हम नच बनाया है मही, पर आत्मा हटता जा रहा हो क्षण-क्षण ! हमारी नीची नही है ! हम भी ऊँच बन सकते है ! र जब मुबह वह लाटी, तब मुस्वादु-पकवानो कुरंग झल्लाया! से कवल पेट ही नहीं भरा था, उसका ! बल्कि एक विरोधी विचारोस कोई खुश भी हुआ है आज पावन-प्रतिज्ञा भी उनके साथ थी ! ...कि प्राण रहते रातमें खाना न खाएगी वह ! उत्तर न दे सकनमें क्रोध बढ़ पाया था शायद उसे ! साक्षात पिशाचका रूप रखकर बोला-ऊँच बनेगी, चुडैल !-क्यों ? बोल खाती है, कि नहीं?' दूसरी रातको !... जागराम अभय आ चुका था, प्रण-पालनकी 'नहीं, मुझ भूग्य नहीं है, जरा भी नहीं ! तुम दृढ़तान उमं साहस दे दिया था ! गम्भीर हेवर हता खायो ! देखो न, कितना पेट भरा है?' बोली--'नही!' 'मैं ..-मै अकेला खाऊँ, क्यों? कभी खाया कुरंगक लम्बे-च. शरीरको, मजबूत हाथोंको है कि आज ही ..? चल,चल;'आ बैठ इधर ! नखरे अ.र उसकी रातमी-प्रवृत्तिको चैलेंज जो था यह ! नहीं किया करते-हाँ!' । और वह भी उसके द्वारा जो उसकी दासी है, अत्रला 'मै न खाऊँगी !'-जागराने दृढ़तासे कहा है, उसकी कृपाकी मुह ताज है ! श्ररत-और मर्दको स्वर कॉप रहा था-उसका ! बात न माने, कैसे बदरित कर सकता था, वह ? श्रापे 'क्यों ..?' से बाहर गया! 'भूख जो नहीं है।' बोला-'नहीं. १ नहीं, सायेगी, बोल ? तुझे 'अच्छा तो एक कौर, बस एक-तुझे मेरी ही न खिलाया तो खिलाया विमे ? मुंह न दिखाऊँ कसम !' कुरंगने स्वभाविक-कर्कस-स्वरको यथा- अपना !" हरामखोर सुअरकी बच्ची !' साध्य नरम करते हुए कहा! आँखें लाल, मुह भयानक, स्वर तीव्र और 'एक दाना भी नहीं ! जरा भी नहीं! देवता! कठोर हो रहा था उसका! हाथमें रोटोका टुकड़ा ले, तुम भी न खाया करो, रातमें! बड़ा पाप है, रातमें बढ़ा जागरा की ओर !... खानेका ! देखो'''' पर, वह जो मुँह बन्द फिए हुए थी ! प्रास
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy