________________
किरण ३-४]
अछूतकी प्रतिज्ञा
___ यही तो तुम लोगोंकी भूल है ! देखो-ऊँच- . 'रातका भोजन न तो धर्ममे ठीक पड़ता है, न नीच सब करनीक फल है । आत्मा किमीका ऊँचा- वैद्यकसे ! और न किसी हेतमे ! सिवा हानिके नीचा नहीं होता, सब बराबर, सब एक हैं ! पर, बात लाभकी कोई बात ही नहीं, इसमे ! सैक्ड़ों रोग, यह है कि तुम्हारे नीच खयालने, नीच-कर्मने उसे हत्यारे इसीसे होती हैं ! छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ोकी नीच बना रक्खा है ! चाहो तो तम लोग भी ऊँच बात छोड़ो, कभी-कभी बड़े पंचन्द्रिय-जीवों तकको हो सकते हो, मुश्किल नहीं है ! ..
भी अपनी आहुति दे देनी पड़ती है ! अनेकों बार 'कैसे...?'
रात में खाकर लोग मौतक मुहमें समा जाते हैं ! भरको भूलने लगी जागरा !
यह एक बहुत बड़ा पाप है, बेटी!'
हो। रातको न इन्हीं सुनो बातोंकी आलोचनामें डूबी जागग खाकर, दिनमें ही खानम फारिग हो लिया करो। बाहरक बरामदेम एक ओर पड़ रही ! पर, आंखों में क्योकि दिनका खाना आदमियत है, दयाकी मोटी
नीद नहीं थी ! पेटमे भख, मनम तक-वितर्क और पहिचान है ! और धर्म-कथाओको सुनो, उनपर
नई नई विचार-धाग' - नीदकी प्रतिद्वन्दनाक लिए विश्वास रक्ग्वा, आचरण करो। व्रत-नियम करते
मोबन्दी कर रही थीं! कराते रहो! अवश्य अगले-जन्ममें तम लोग ऊँच
देरतक रात्रि-भोजनकी भयानकतापर अपने बन जाओगे-ज़रा भी शक नही! और नीच-जाति छोटे, ऊपरी और हल्के दृष्टिकोणमे विचारती रही। में भी खुदको नीच कर्मों में, पापों में डुबोए रखोगे महमा भयकी प्रबलताने उसकी चित्तनाफाको गतो याद रक्वो, श्रीर भी बड़े नोच बनोगे! करनी मगाना शुरू किया। वह सोचने लगी- शायद मंठानी ही तो ऊँचनीच बनाती है न -नीचताका फल ने मुझे टाल बता दी, देनेम इन्कार केस कर सकती मिलेगा-नरक ! जहॉक दुःखांकी शुमार नही" -म्टने जो कह दिया था ! मोचा होगा-बहाना
धनमती देर तक ममझानी रही सीधे-शब्दों में कादृ', कि गतमें न ग्वाते हैं, न खिलाते । • श्री कल्याणकी बाते । स्वयं विदपी थी-धर्म-शीला! जो स्वभावमे ही कंजूम होती हैं ! खूद न खारें
जागराकी आत्मामें कुछ ज्योति चमक उठी। मना क.न करता है पापम डरती हैं, जान प्यारी है बोली-'मॉजी ! बाते तो तम्हारी बड़े ज्ञानकी है। तो ? मुझ ना दे देती। मुझम क्या रिश्तेदारी.' पर, निभ जायें उसका भला कर सकती हैं ये । या. क्या म्नेह ? जो मुझे यो.....!' सुननसे क्या होता है ?
मोच ही रही थी कि गगापाल आगया ! न जाने निभानेकी गनमें आनेपर, कठिन नही है आदमी कहाँ ग्बलता रहा था इस वन तक ! बच्चा जो टहरा के लिए कुछ ! क्या तम गतका भोजन छोड़कर भावप्याचन्तास मुक्त । जी नही सकती ? मै तो कहती है-रातका भोजन मॉने पहले डॉट बताई-हल्कं -मी, फिर पलंग कितना बुरा है, यह जान लेनेपर कोई रातको खा पर सो रहनको कहा ! प्यारम सिरपर हाथ फरते ही नहीं सकता, चाहे प्राण चले जाये !'-धनमतीन हुए। कहा !
वह बोला-'माँ भूख लगी है ?' वह बोली-'हां, है तो रातका खाना बहुत जागरा अवाक रह गई-- जब उसने मना कि बुरा । मुझे तो अब मबसे बड़ा पाप यही मालम माँका ममतामयी-हृदय बच्चेका मा सो रहना देता है ! ज़रूर इसीलिए हम नीच है, दुग्वी हैं कि बर्दाश्त कर रहा है, लेकिन रातमं खिलानका पाप हमारे यहाँ रातमें भोजन होता है !
नहीं!