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चामुण्डराय और उनके समकालीन प्राचार्य
(लेखक-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी' )
वीर-मार्तण्ड चामुण्डराय और सेनापति थे। गचमल्ल (चतुर्थ) का राज्य-काल जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें वस्तपाल और श०सं०८६६ से १०६ (वि० सं० १०३१-४१) तक तेजपाल मंत्रीकी प्रसिद्धि है उमी तरह दिगम्बर निश्चित है। ये गंग-ब्रज मारमिंहके उत्तगधिकारी थे। सम्प्रदायमे चामुण्डराय या चावुण्डराय की । उनका मारलिह आचार्य अजिनमनके शिष्य थे और उन्हींक घरू नाम गोम्मट था और 'राय', राजा गचमल्लबाग ममीप बंकापुर (धारवाड़) में उन्होंने ममाधिपूर्वक मिली हुई पदवी थी, इस लिये गोम्मटराय नामस भी
देहत्याग किया था। वे बड़े भारी योद्धा थे और उन्हों उनका उल्लेख मिलता है। डा० आदिनाथ उपाध्येने ने अनेक जैनमन्दिर निर्माण कराये थे। जगरेकवीर अपने एक लेखमें सप्रमाण मिद्ध कर दिया है कि राचमल्ल भी उन्हींकेममान जैनधर्मपर श्रद्धा रखते थे। बाहुबली स्वामीकी मूर्तिका नाम गोम्मटजिन या चामुण्डराय केवल महामात्य ही नहीं, वीर मनागोम्मटेश्वर इसी कारण प्रसिद्ध हुआ है कि वह पति भी थे । उन्होने अपने स्वामी के लिए अनेक युद्ध चामुण्डरायद्वारा निर्मापित हुई थी और आचार्य जीते थे, गोविन्दराज, वेकांडुराज आदि अनेक नेमिचन्द्रका पंच-मंग्रह भी गोम्मट-सार गोम्मट-संग्रह, राजाओको पगम्त किया था और इसके उपलक्ष्यम या गोम्मट-मंग्रह-मूत्र इसी लिये कहलाया कि वह उन्हें समर-धुरंधर, वीर मार्तण्ड, रंगारंगमिह वैरिकुलचामुण्डरायक लिये उनके प्रश्नके अनुरूप धवलादि कालदण्ड, असहायपराक्रम, प्रतिपक्षराक्षस, भुजविक्रम, सिद्धान्तों परम मंग्रह किया गया था । अण्णु भी समर-परशुगम आदि विरुद्ध प्राप्त हुए थे और कौनसी उनका एक बोलचालका नाम था। केवल 'गय' या उपाधि किस युद्ध के जीतनपर मिली, इमका भी 'देव' नामस भी उनका उल्लेख किया गया है। उल्लेख मिलता है। अपनी सत्यप्रियताके कारण व चामुण्डराय ब्रह्म-क्षत्रिय कुलक थे । इम कुलके विपय मत्ययुधिष्ठिर भी कह जाते थे। में हम कुछ पता नहीं । संभव है, उनके पूर्वज पहले
जैन धर्मनिप्र होन कारण जैन-प्रन्थकागंने उन्हें ब्राह्मण रहे हों और पीछे छात्र-वृत्ति करने लगे हों। सम्यक्त्वरत्नाकार, शौचाभरण, गुणरत्नभूपण, देव
वे गंगवंशी राजा गचमल्लक अमात्य (मन्त्री) गज आदि विशेपण भी दिये है"।। १ देखो, अनकान्त वर्ष ४ अर, ३-४ ।
गोम्मटराय या चामुण्डगय तीन कामांके लिए २ बाहुबलि नरितम चामुण्डगयको 'ब्रह्मक्षत्रिय-वैश्य
विख्यात हैं-गोम्मट-ग्रहमूत्र(गोम्मटमार), गोम्मट__ मुक्ति-मुर्माणः' कहा है।
४ देवा, जैन शिलालम्ब-मंग्रहका ३८ वो लेख । ३ यह वंश भैसूर प्रान्तम ईमाकी चोमे लेकर ग्यारहवी ५ प्राचार्य नमिचन्द्रने श्लिष्टरूपमे तीर्थकर भगवानको भी सदी तक रहा है। श्राधुनिक मैसूरका अधिकाश भाग ऊपर लिग्वे विशेषण देकर चामुगडगयका मंके । किया है, गंगराजानांके ही अधिकारम था। इनकी गजधानी जैमाकि गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी निम्नगाथायोमे प्रकट हैपहले कोलार (पालार नदीके किनारे) थी. जो पीछे (क) अमहायजिग्देि अमहायपरकाम महापारे ।२६८ कावेरीके तटपर ललकाड चली गई थी। इस गजवंशका (ख) णभिऊण ऐमिचंदं महायपरक्कम महावीरं । ८७ जैनधर्मसे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। गोम्मटसारके टीका- (ग)भिऊण मिणा गच्च जाहिरण्मासय घिजुग ।४५१ कर्ता अभयचन्द्रने हमे मिहनन्दिमुनीन्द्राभिनन्दित' राज- (घ) रामद गुणापणभूमण मद्धतामियमहद्विभवभावं ।८६६ वंश कहा है। कई जगह सिहनन्दिको इन राजवशकी (ङ) गुणग्यणभूसणंबुहिमइवेला भरउ भुवण्यलं ॥९६७ जड़ जमाने वाला भी बतलाया है ।
(च) गमिऊण वढमाणं कणयणि देवरायपरिपज्ज ।३५८