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किरण ६-७]
वीर शासन-जयन्ती
पंच-अट्ठमय-पंच-तिय, अट्ठावीस-इग्यारह-अंक। अंगहॅ पुच है इत्तिपय, चउदह ण सोयार म संकहि ॥२८॥ लिवि' अट्ठारह कला बहत्तरि । च उठि वि विरणार मणंतरि ।। रिउ छह बारहमास लिहि, पुढविभय-छत्तीस विसेसहि । सत्तवीस अणगार-गुण, जिण-द्दर सहस-कूडु महुँ दरिमहि ||१|| मचा-उदय-उदीरण कम्मई। लिहि मविमेस विहिय जिगा-धम्महि ।।।
पतिउ लिहिवि समप्पियउ, मुद्धउ धरि गय ओढिवि चुएगी। विरणयचंद-मुणि-वयण सुणि, उत्तम-सावय-धम्मि पवएणी ।।३०।। ति-हर्याण गिरिपुरु जगि विक्खायउ। मग्ग-खंडु णं धर-यलि आयउ॥ तहिं णिवसंत मुणिवरें, अजय-गरिंदहो गय-विहारहिं । वेगे विरइय चूनडिय सोहहु, मुणिवर जे सुय धारहिं ।। ३१ ॥ ॥ इति श्री भट्टारक-विनयचंद्रप्रणीता चूर्णिका समाप्ता ॥
वीर के सन्देशका संवाद लेकर मास सावन,
आगयाशामन-जयन्तीका मुदिन शुभ पर्वपावन ।। लोभ पापचार-अत्याचारको जगसे मिटान, भेद भावोको हटाकर साम्यमय जगको बनाने ।
ओ' अहिसा धर्मका संसार में मंगीत गाने, दानवोंको मनुजताका पाठ आये थे पढ़ाने ।।
त्यागका आदर्श बन जो तज चुके थे राज्य-शासन ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन ।। घोर था आतङ्क भू पर, कट रहे थे पशु विचारे ! सान्त्वना उनको मिली थी,आप हीके आ सहारे।। दलित-पतितों औ' अछूनांको उठा उरमे लगाया। स्वार्थक संमारमें परमार्थ-नद जिनने बहाया ।।
थे लगे करने नभी सब निडर होकर आत्मचिन्तन ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन ।। उप-मिश्याचार-हिमाको हटाकर आत्मवलसे, दु:ख जीवोंका किया था दृर जिनने भूमितलसे । विश्वमें सद्ज्ञानकी तब छा गई थी शुभ घटाएँ, वृष्टि ज्ञानाऽमृत हुई, थीं चल पड़ी मंजुल हवाएँ ।।
हर्पसे 'व्याकुल' अवनिका नृत्य करता एक कण-कण ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन* ॥ *वीर सेवामन्दिरमे वीरशामन जयन्तीके अवसरपर पटित ।
श्रीओमप्रकाश शर्मा 'व्याकुल'
सरसावा