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________________ किरण १-२] भगवान् महावीरकी नाँकी ६. इस प्रकार जीवनका संवरण करते हुए. रागद्वेष, शक्तिकी विभिन्नता न थी, उनकी अभिव्यक्तिकी विभिन्नताथी, काम, क्रोध, लोभ माया आदि उन अनान भावों को निर्ण उनके स्वभावकी विभिन्नता न थी. उनके विकारकी विभिकरने और उखाड़ फंसने की जरूरत है, जो अनादि अभ्यास सता थी, उनके प्रयोजनकी विभिन्नता न थी, उनके प्रयोग के कारण प्राप्माने अहना घर कर गये हैं, जो आमाका की विभिनता थी, उनके साध्यकी विभिन्नता न थी उनके स्वभाव ही बन गये हैं। इन भावों को नष्ट करने के लिये, साधनीकी विभिन्नता थी, उनके मार्गको विभिकता न थी, सदा इनके प्रति जागरूक रहनेकी जरूरत है, सदा इनके उनकी मजिलोंकी विभिन्नता थी। लाचना, प्रातक्रमण, प्रायश्चित्तकी ज़रूरत ६. सदा वह जब इस श्रोपरी विभिन्नताके घटाटोपके नीचे. इस इनसे हटकर प्रारमअभ्यासी प्रामध्यानी होनेकी जरूरत है। बाहरी विषमताके जटिल प्रपञ्चके नीचे झांक कर देखता, ७. जब आमा बाहिरसे हट कर अपने प्रा जाता है, तो उसे साक्षात् होता कि-'सबमें एक ही समान जीवन तो वह अपनेको देखता हुश्रा सब कुछ देखता है. उसे कुछ बह रहा है, सबने एक ही समान भावना, एक ही समान देखना बाकी नही रहता, वह कृतकृय होजाता है। जब वेदना, एक ही समान उद्वेगता काम कर रही है।" श्रापमा परभावोरे विमुक्त होजाता है तो वह तुप-विमुक्त "सब ही जीव अमृत के अभिलाषी हैं, सुखके मुतलाशी चावजके समान विशुद्ध हो जाता है, वह अपनी ही सत्तामें है, पूर्णताके इक्छुक हैं, ज्योतेके उ'सुक हैं, माधुर्यके प्यापे स्थिर होजाता है। उसका फिर जन्म-मरण नही होता। हैं, सुन्दाना के दीवाने हैं।" वह अमर होजाता है, अक्षय सुख का स्वामी होजाता है, सब ही जीव मौतसे भयभीत हैं, दुःखमे कायर हैं, परमब्रह्म और परमा मा होजाता है। अपूर्णतासे व्याकुल है।" वह समदर्शी था "सब ही जीव मानसे अमृतको श्रोर, दुःखसे मुम्बकी इस प्रकारकी विचारणाके कारण, उसकी रष्टि मान्यता पोर, बुरेसे अच्छकी भोर, घोडेसे घनेकी ओर प्राप्तसे से लबालब भरी थी। वह जब भी अपने पास पास यहां प्राप्तकी ओर, अपूर्ण से पूर्णकी ओर बढ़ने में लगे हैं।" अन्य जीवो देखता, तो वह उन सबमें अपने ही समान "यह सब कुछ होते हुए भी, यहां सब ही जीव अपनी जीवन का सार देखता, अपने ही समान उनमे चिन्मूर्त ब्रह्म भूलोंमे धमे हैं, अज्ञान में सने हैं, मोहसे ठगे हैं-सब ही का दर्शन करना। अपने स्वरूपमे अपरिचित है, अपने अभीष्टये अपरिचत हैं, उमे, जीवों में दीखनेवाले सब ही भेद विकल्प बहुरू- अपने सिद्धिमार्गमे अपरिचित हैं। इसी कारण रूथ ही इष्ट पियेकी तरह बनाये हुये रूपोंके समान प्रोपरे और चार्जी ढढने भी अनिष्टको अपना रहे हैं, सिद्धि-पथ पर चलते भी महसुस होते । वे अग्निको ढकनेवाले भस्म के समान, मोती असिद्धिकी ओर जा रहे हैं, श्राशासे लखाते भी निराशाापे को मुंदनेवान सीपके समान मिथ्या और निस्मार मालूम टकरा रहे हैं, मुखको चाहते भी दुःस्वाको पा रहे हैं । सब होते. वे सब शरीरमे उदय होनेवाले, शरीरमें रहनेव ले ही जीव दयाके पात्र हैं क्षमाके पात्र हैं।" शरीरमें विलय होने वाले सूझ पदते । वे सब बहुरूपा, "यहा सब को अपने उत्थान के लिये दया, दान, प्रोलाहन प्रकृति के ही प्रपञ्च नज़र पाते। की जरूरत है, अपनी अभिवृद्धि के लिये सुझाव, सम्बोधन उसके लिये, इन भेदों-विकल्पों में स्वयं कोई भी जीवन रहनुमाईकी जरूरत है; अपने विकासके लिये स्वतन्त्रता, न था वे सब औपाधिक चीज थीं-जीवनी पैदा की हुई, सुभीता सहयोगकी जरूरत है। इस लिये इस लोप में दया उसकी धारणाकी उपज, उसकी कामनाकी कला, उसकी दान ही सबसे उत्तम धर्म है, परोपकार ही स्वोपकार है, जरूरतवी ईजाद, उसकी परिस्थितिकी सृष्टि। जनमेवा ही ईश-उपासना है।" उसके लिये, यह मारी विभिन्नता, जीवोंके वस्तुसारकी वह सम-व्यवहारी थाविभिन्नता न थी उसकी अवस्थाकी विभिन्नता थी उनकी इस विचारणाके कारण जैसे उसकी दृष्टि साम्यतासे
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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