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________________ अनेकान्त [वर्ष ५ भरी थी, वैसे ही उसकी चर्या भी साम्यतासे भरी थी। को खडा हुश्रा देखता, भोजनकी लालसा लिये हुये किसी जैसे वह सब जीवोंको अपने समान देखता, वैसे ही वह कुत्ता बिल्लीको बैठा हुआ देखता, लोलुपी मविखयोंको वहां सबके साथ अपने जैसा व्यवहार भी करता। वह साक्षात भिनभिनाता हुश्रा देखता, तो यह सोच कर कि कहीं उस विश्वप्रेमकी मूर्ति था, उमड़ता हुश्रा दयाका मागर था। के कारण उन्हें श्राहार मिलनेमे बाधा न हो जाय, वह वह जब भी बोलता. हित-मित वचन बोलता, मिसरी वहाँमे खिसक श्रागेको हो लेता। सी घोलता हुश्रा बोलता-स्पष्ट और गम्भीर--थोड़ा वह जो भी आहार लेता-छयालीस दोष टालकर ही और सारपूर्ण, स्यावाद और समन्वयरूप, शंकाशृलोंको लेता। मांस, मधु. मदिरा रहित-कन्दमूल, बीज, पुष्प, पत्रचुगता हश्रा, दुःख-सन्तापको हरता हुआ, धैर्य-उत्साहको रहित-सजीवोंके विधातसे खाली-न्यायसे उपार्जित बढ़ाता हुआ, ज्योति-स्फुर्ति फैलाता हुआ, अन्धोंको अांखे किया हुश्रा। निर्बलोंको बल देता हुआ। इस तरह वह प्रमाद छोड यग्नाचारसे रहता, वह न ___ वह जब भी चलता, बदा सावधान होकर चलता, खुद मन, वचन, कायये दूसरोंका कोई अहित करता, न आँखोमे मार्गको शोधता हुश्रा चलता-दिनके ममय-- दुसरों द्वारा कोई अहित कराता, न द सरों द्वारा किये हुये स्थिर गतिसे-हरितकाय भूमिको छोडता हुआ, नन्हीं अहितकी कोई अनुमोदना करता। नन्हीं सी जानोंको बचाना हुआ, सब हीकी बाधाओंको वह ब्रह्म-विहारी थाखोता हुश्रा। यदि कही मार्गमे उसे चलता हुश्रा कीडीनाल वह जहाँ दूसरोंके प्रति समव्यवहारी था, वह अपने दीख पडता, दाना-दुनका चुगता हुअा पंछी झुण्ड प्रति ब्रह्मविहारी था। यद्यपि बाहिरसे वह हाड मांसका नजर आता तो, इस भावसे कि कही उनको बाधा न हो, बना दीखता, पर वह कभी भी हाड मांसका बनके न रहा। उस मार्गको छोड़ परेके परे अन्य मार्गसे चल देता। वह वास्तवमें ब्रह्म था और ब्रह्म होकर ही शरीरमें रहा। वह जब भी बैठता या लेटता तो जमीन शोध कर ही वह सदा शरीरको अपना साधन मानता-अपने को बैठता और लेटता, स्थिरकायसे ही बैठता और लेटता, उसका स्वामी जानता। वह प्रमाद छोड़ सदा सारथीकी सबके लिये श्राने जानेका मागं छोड कर ही बैठता और तरह उसमें श्रारूढ रहता । वह कभी भी अपने शरीरको, लेटता। वह बीच बीचमें डावांडोल न होता, बारबार करवट उसके मन, वचन, कायके योगोको, उसकी पञ्चेन्द्रियोंको, न बदलता, इस ख़यालसे कि कही अनजानमें कोई सरकने उनकी श्रादतके अनुसार रूढीक वृत्तियों और वासनाओंमें वाला, कोई फुदकने वाला जानदार ममला न जाय। विचरने न देता-वह बुद्धिपूर्वक उनसे जो काम लेना चाहता __वह जब भी कोई चीज़ उठाता या धरता, तो उसे उसीमे उन्हें प्रवृत्त होने देता। झाड पोंछ कर ही उठाता और धरता। वह जब भी अपना वह सदा शरीरको अपनेसे पृथक जानता, उसके भावो मलमूत्र क्षेपण करता तो निर्जीव, प्रासुक स्थान देखकर ही को अपनेसे पृथक निहारता-पृथक जैसा ही उनके साथ व्ययक्षेपण करता। उसे हरदम खयाल रहता. कि कही कोई हार करता । जब भूख-प्यास, गर्मी, सर्दी चीसचबक, निद्रासूक्ष्म जीव नीचे दबकर न मर जाय । तन्द्रा, थकन-आलस्य, शरीरमें व्यापते, नो वह उन्हें भूक___ वह जब भी यसतीमे आहार लेने जाता, तो मधुकर प्याम-रूप ही जानता पर वह उन्हें अपने से भिन्न शरीरका समान ही घूमता हुश्रा जाता, अतिथि समान अनायास ही व्यापार जानता । वह केवल उनका ज्ञाता दृष्टा रहता, वह जाता, बिना निमन्त्रण लिये हुये, बिना सूचना दिये हुये, उनसे ज़रा भी एकमेक न होता--वह उनमें ममत्वबुद्धि धार श्राहारके समय पर बने-बनाये भोजन से कुछ लेनेके लिये, ज़रा भी खेद खिन्न न होता। इस विचारसे कि कहीं उसके कारण गृहस्थियोंको स्वागत जब कौटा कंकर चुभकर पैरमें दर्द करता, कूदा कर्कट की चिन्ता न करनी पड़े, आहारकी तय्यारी न करनी पड़े। पड़कर प्रांखोंमे पीड़ा करता, तो वह उन्हें दूर करनेका कोई वह जब दातारके घर भिक्षार्थी किसी फकीर याचक भी उपाय न करता । जब कीदा-मकोदा चढकर शरीरमें
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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