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किरण ३-४
भगवान् महावीरकी झांकी
सरसराहट करता, मक्खी मच्छर काटकर देहमें दाह उत्पन्न करती, अपनेको विफल मनोरथ जान खिजकर उसे अनेक करता, तो वह तनको खुजलाकर उसे शान्त करनेका बोई पीडाय देती जब उसे नंगा धडंगा देख गावोंके अनजान भी जतन न करता।
श्रादमी चोर चोर कहकर पुकारते, जब उसे बावला जान जब ध्यानस्थ निश्चल खडे हुये शरीरपर पक्षी प्रा बसतीके बच्चे उससे छेड़ छाड़ करते, उसपर ईंट-पत्थर बैठने, सपं शरीरपर चढ़ जाते, हिरण प्राकर शरीरमे बरसाते । घच करके उसके पीछे कुत्ते लगाते तो वह उन्हें खुजलाते, वह अपनी ठोग और आघातोंसे शरीरमें चोट अज्ञानी जान रनपर जरा भी कुपित न होता-वह अपनी लगाते, तो वह ज़रा भी विचलित न होता, उस समय धुनमे रमा वैसा ही विचरता रहता । वह ऐसा मालूम होता, जैसा पाषाणका बना पुतला ही वह इसी प्रकार प्रकृतिकी शक्तियोसे जूझता हुश्रा, खड़ा हो।
अपने अन्तर देशका बराबर निरीक्षण और नियन्त्रण जब धूल मिट्टी उड़कर देहपर पड़ती, तो वह उन्हें करता रहता। वह इस युद्धके बीच अपनेमे जब कभी ज़रा भी न झाडता । वह रेचन, दमन, स्नान-मर्दन, दन्त- अहंकार-लोभ ममकारकी छायाको देख पाता, राग द्वेषकी धावन द्वारा शरीरका कोई भी संस्कार न करता । वह उस लीलाको देख पाता, क्रोध, मान माया, लोभको तरङ्गोंको धूल भरी देहमे रहता हुआ ऐसा सोहता, जैसे पङ्कमे घसा देख पाता, तो वह उन्हें अपने साम्राज्यका शत्रु जान फौरन हुश्रा कमल ही हो-देह रजमे और प्रारमा अाकाश में। उनका मामना करता, शत्रु समान उनकी बड़ी बालोचना __जब गर्मीकी लू चलती, सर्दीकी तुषार पड़ती, वर्षाकी करता, उन्हें ललकारकर कहताझडी लगती तो वह मोहीकी तरह देहको इधर उधर 'क्या तुम अब भी यहां मौजूद हो? तुमने अनन्तछुपाता न फिरता, वह देहको देह-तत्त्वोके साथ ही अड़ा कालसे हरे हरे बाग दिखा मुझे खूब पागल बनाया है, देता। सर्दीकी ऋतुमे वह बादलोसे घिरा, सुपारसे ढका, नई नई श्राशाय सुझा प्रामद्रोही बनाया है, मेरी सब झंझा वायुसे सटा ऐसा मालूम होता, जैसे हिमाचल ही कुछ सम्पत्ति छीन मुझे रंक और कंगाल बनाया है। खड़ा हो।
तुम्हारी भय कुछ भी न चलेगी, मैं तुम्हें अब खूब पहिजब हफ्तों, परववाड़ों, महीने, दो महीने, छह महीने चानता है, तुम मेरे नही मैं तुम्हारा नहीं, तुम सब प्रकृति तक उपवास करनेके कारण शरीर सृखकर बिल्कुल पतला की सन्तान हो- मेरे शत्र, मेरे विघातक, मेरे राज्यमे पड जाता, खालमें नमोंका जाल चमकने लगता, भीतरमें विद्रोह फैलाने वाले, उत्पात मचाने वाले, मेरे साम्राज्यको हाडमे हाइ बजने लगता, तो वह उठने बैटने, चलने फिरने भंग करने वाले-अब नुम मुझये बच कर कहो जायोगे?" मे सहारेके वास्ते कभी लाठीका प्रयोग न करता।
यों कहते कहने वह गाढ प्रायश्चित्त अमिमे उन्हें वहीं जब इन लम्बे लम्बे उपवासोंके बाद वह थाहार लेने विदग्ध कर देता। नगरीमे जाता, और वहां उसे विधिपूर्वक निर्दोप श्राहार वह केवलजानी थान मिलता, तो वह उससे ज़रा भी अधीर न होता, वह इस प्रकार बारह लम्बे मालों तक दुर्धर तपस्या करते नगरीमे लौट फिर उसी तरह अपनी साधनामे लग जाता। हुये-दृष्टिमे साम्यता, बुद्विम समन्वय, श्राचारमं अहिंसा,
जब निद्राके प्राबल्यके कारण पलकें झपकने लगतीं भावमें महनशीलता करते हुये उसने प्रकृति और उसकी आँग्वे मंदने लगतीं, अंग टूटने लगते, तम सा छाने लगता, मायावी शक्तियोको, इन शक्तियोंके रचे हुये व्यूह और तो वह तमावरणको उघाड फौरन सचेत होजाता, उस षड्यन्त्रोंको श्राग्विर विजय कर ही लिया। समय वह ऐसा जान पड़ता, जैसे प्राचीके बादलोंमे उभरा एक दिन वैशाख मुदी दशमीको, उत्तरा फाल्गुनी हुश्रा बालारुण ही हो।
नक्षत्रमे, संध्याके समय, जब वह ऋजुकला नदीके तट पर जब उसके मुडोल सुन्दर रूपको देख, जंगलके एकान्त कायोग्सर्ग ध्यान लगाये खडा था-उसे सहसा अनुभव का श्राश्रय पा. विषयासक्त नारियों उससे भोगकी वाञ्छा हो पाया कि