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________________ ११८ अनेकान्त [वर्ष ५ - "वह तपे हुये सोनेके समान बिरुकुल विशुद्ध है, उस हुआ चला। उसके पास था श्रानन्दरस, वह उसीको हर में अहंकार-ममकार, राग-द्वेष, मोह-मायाका लेशमात्र भी तरफ सरसाता हुश्रा चला, उमगाता हुआ चला। उसके अवशेष नहीं है, वह निरावरण सूर्यकी तरह जाज्वल्यमान पास था ज्ञान रस--वह उसीको हर तरफ छिटकाता हुआ प्रारमस्वरूपको निरख रहा है, वह सब ही सिद्धियोंसे चला, बरसाता हुश्रा चला। वह सब ही को अपने समान भरपूर है, वह सर्वस्व और परिपूर्ण है।" निष्काम और प्राप्तकाम, वशी और स्वतन्त्र, परब्रह्म और "उसमें हित अहित, इष्ट अनिष्ट सम्बन्धी जो बहुत पुरुषोत्तम बनाता हुश्रा चला। सी कामनायें उठा करती थी, उनमेये आज कोई भी नहीं वह जहाँ भी जाता, विश्वका विश्व उसके साथ जाता। है, वह कृतकृत्य है। उसमें सत्य असत्य, द्वैत अद्वैत सम्बन्धी जो भी उसके सम्पर्क में आता वह निर्भय, निर्मम, निर्दोष जो बहुत सी कल्पनाय बना करती थी, उनमे से श्राज होजाता, सर्प और नेवल. कुत्ता और बिल्ली, सिंह और कोई भी नही है, वह सम है। उसमे साध्य-साधक, व्याघ्र जैसे कर जन्तु अपने वैर-विरोधों भूल शान्त शेय-ज्ञायक सम्बन्धी जो बहुत सी तर्कना जगा करती थीं, होजाते और एक दूसरेसे प्यार करने लगते। उनमेंसे श्राज कोई भी नहीं है, वह शम है।" एक दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्याके प्रातःकाल जब "वह ब्रह्म है न अब्रह्म, मूर्त है न अमूर्त, देव हैन वह पावामें ठहरा हुआ था-बहत्तर वर्षाका बोझ उसके शरीर मनुष्य, श्रमण है न गृहस्थ, साधक है न साध्य, ज्ञायक पर पड़ा था, उसकी शरीरकी सन्धियाँ कुछ ढीली पड़ी, है न ज्ञेय, मैं है न वह-दह ज्ञान ही ज्ञान है, केवल- उसे तनमे बान्धने वाली गांठे कुछ परे सरकी, फिर क्या था, मुद्दतका मुँदा हुश्रा स्रोत, बन्ध टूटे प्रवाहकी तरह ____ो कुछ भी ज्ञातव्य, द्रष्टव्य, श्रोतव्य, मन्तव्य है, वह सब ओर से बह निकला, वह शरीरमे ठहरा हुश्रा पाताल सब ही कुछ है, जो कुछ भी भूत, भव्य, वर्तमान है, वह और अन्तरिक्ष, जमीन और पासमान, नीचे और ऊपर, सब ही कुछ है, वह सब ही ब्रह्माण्डको अामा समाये हुये है, दायें और याय, सय ही लोवाको व्याप्त कर गया, वह विराट सबही लोक और अलोक, स्वर्ग और नरक, तारे और नक्षत्र, पुरुषाकार होगया। पुनः क्रमश: प्रतर, कपाट, दण्डवत् चौद और सूरज, द्वीप और सागर दरया और पर्वत, राष्ट होता हुआ वह शरीराकार हुआ फिर दीपशिखाके समान और जनपद. ग्राम और नगर उसमे ठहरे हुये हैं। सब ही सीधा उठता हुअा चला गया-सीधा वहीं, नहीं सिद्धिको दशेन चौर विज्ञान, वेद और पुराण, श्रागम और मूत्र प्राप्त हवामें हवा, जोतमें जोत होकर सिद्धदेव रहते हैंउसमें बैठे हुये हैं। सब ही गति और योनि, वर्ण और श्रोखोसे दूर बुद्धिसे दूर, कालसे दूर। जाति, पन्थ और सम्प्रदाय उसमें भरे हुये हैं। सब ही वह विश्वविभूति हैदेव और दैत्य, नर और तिर्यज्ञ पशु और पक्षी, द्रुम और वह यद्यपि पाजसे २६ वी शताब्दी पूर्व में पैदा हुआ, लता उसमे बसे हुये हैं, वह श्राकार पराब है-जीवन- पर वह २६ वीं शताब्दी पूर्वका ही न था, वह भारतमे पैदा हुश्रा, पर वह मावन कुलका ही न था-वह विश्वविभूति केवलज्ञानकी प्राप्तिके बाद वह तीस वर्ष तक उत्तरीय था, और विश्वविभूति बनके ही रहा-सब ही कालोके लिये, भारत के सब ही देशोंमे घूमा-किसी इछावश नही, सय ही लोगोंके लिये, सय ही जीवो के लिये। किसी जिज्ञासावश नही, स्वभाववश-श्रामप्रदान अथ। उसने अपने गाढ़ चिन्तवन, गाढ तपश्चरण द्वारा जिस जिसके पास जो कुछ होता है वह उसका दान करता ही समस्याको हल किया है, वह वैज्ञानिकों, समाजसुधारकों, है-फूल सुगन्धका, कोयल मीठे स्वरका, हिरण मुश्कका, राष्ट्रीय नेताओंकी समस्यायोंके समान किसी एक युगकी रागी संगीतका, कवि काव्यका । उसके पास था अमृत रस समस्या न थी, एक देशकी समस्या न थी, एक जातिकी लबालब भरा हुआ, छलकता और बहता हुश्रा-वह समस्या न थी। यह थी त्रिकालकी समस्या, विश्वकी उसीको हर तरफ देता हुया चजा-जिवाता और उठाता समस्या, प्राणिमात्रकी समस्या । वह थी दुःख और सुखकी
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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