SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ३-४] भगवान् महावीरकी झाँकी १९६ समस्या, लोक और परलोककी समस्या, जीवन और मरख पहीं छोड़े, अपने साथ लिया तो केवल वह जो उमका की समस्या। अपना था-मात्माराम इस समस्यापरसं उसने दुख मेंसे सुखको, अपूर्णतामें अाज हम भले ही उसे बीर, महावीर, सन्मति, से पूर्णताको, बन्धनमे से मुक्तिको मृत्युमेसे अमृतको पाने वर्धमान नामों से पुकार, निर्मन्य, कायोत्सर्ग, ध्यानारूत का जो मार्ग ढढाधा-जिसे अपने प्रयोगमें लाकर उसने खुद प्रादि रूपोंसे भाराधे, तप, ज्ञान, धर्मप्रवर्तन भादि कामो संसार सागरको उल्लंघा था-वह किसी विशेष देश, विशेष से याद करें, परन्तु भाज वह इन सब ही चीज़ोंसे परे है, जाति, विशेष सम्प्रदाय की सम्पत्ति नहीं है, वह भाज सब प्राज यह सब ही तरह मुक्त है-स्वतन्त्र है और स्वराज्यही की सम्पत्ति है, सब ही उसके अधिकारी हैं, सब ही स्थित है, माज वह अपनी अपनी ही भावुकतामें मग्न है, उसपर चलकर इस पारसे उस पार जा सकते हैं, अपनी ही सुन्दरतामे लीन है. अपनी ही ज्योतिसे ब्याप्त है. उस समाम शुद्ध बुद्ध और निरंजन हो सकते हैं। अपनी ही सत्तामें ठहरा हुभा है। भाज कोई नाम, कोई वह आदर्श है धाम, कोई काम, कोई प्राकार रूप ऐसा नहीं जो उसकी वह जब यहाँ भाया तो स्वागत करने वाले बहुत सेवा अपार सत्ता, न्यापकता और कृतकृत्यत को अपने करने वाले बहुत, और जब यहाँ से गया तो स्मरण करने समा सके। धाले बहुत, स्तवन करने वाले बहुत, पर उसने इनमे किसी आज वह ऊंचाई और नीचाई की, धूप और छायाकी, पर भी लषय न दिया-वह भाते जाते एक ही समान रहा। परवा और पछषा की, उतार और बढ़ावकी दुनियासे बहुत बसन्तकी तरह जब भाया तो मुस्कराते हुये फूलोंको खिलाते दूर है-बहुत ऊपर है। आज वह भाल-विस्त्रकके समान हुये, दिलोंको हँसाते हुये, और जब गया तो फिर मुडके लोक-तिलक बना है, ध्रुव तारेकी तरह प्रदीप्त पादर्श बना भी न देखा कि क्या है-बिल्कुल निर्मोह, बिल्कुल निर्लेप, है, सब भोर सखाता हुमा, सब ओर सुमाता दुभाबिल्कुल एकाकी । यहाँ के बन्धन यहीं तोदे, यहाँ के पदार्थ "उठो, जागो, अपने को पहिचानो।" परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम (लेखक न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) नसाहित्यकी अमर कृतियों में तत्वार्थसूत्र खूब गंभीर, तलस्पर्शी तथा अर्थगौरवको लिये हा है। की तरह एक न्यायसूत्र भी है, जिसका थोड़में ही बहुतका बोध करा देना-झरोखेमें से - नाम है 'परीक्षामुग्व'-परीक्षाका द्वार, विशाल नगरको दिखला देना-उनकी प्रकृति है अर्थात वह कस.टी जिसके द्वारा खरे-खोटे, सच्चे- और वे बड़ी सुगमता के साथ कण्ठस्थ किये जा सकते झूटे और असली-नकलीकी ठीक जाँच की जाती है, हैं। सूत्र सब गद्यम है; परन्तु उनके आदि और अंत यथार्थताका पूरा पता लगाया जाता है भार इस बात मे एफ एक पद्य भी है। भादिम पधर्म ग्रन्थप्रतिज्ञा का सम्यक निर्णय किया जाता है कि प्रमाणता, न्याय को देते हुए प्रतिपाद्य विषय, उसकी उपयोगिता, अथवा सत्य किधर है। यह अपूर्व ग्रन्थ संस्कृत भाषा प्रमाणता, प्रतिपादनकी अल्पाक्षरमय-सूत्ररूपता और में निबद्ध है, छह परिच्छेदों में विभक्त है और इसकी जिनको लक्ष्य करके प्रतिपादन किया जारहा है उनकी सूत्रसंख्या सब मिलाकर २०७ है। सूत्र देखनेमे बड़े विशेषताका निर्देश बड़े ही सुन्दर ढंगस किया है, ही सरल, सरस तथा नपे-तुले हैं और विचारनेमें जिस देखते ही ग्रन्थ-गौरवका अनुभव होने लगता
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy