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________________ २२० अनेकान्त [वर्ष ५ है। अन्तिम पद्यमें ग्रन्थका उपसंहार करते हुए इम को अपनी ओर आकर्षित किया है और परीक्षामुखसूत्रको हेयोपादेय तत्त्वोंका आदर्श बत- विद्वानोंने इसके समकक्ष दूसरे सूत्रग्रंथ बनानेकी चेष्टा लाया है-वह दर्पण मूचित किया है जिसमें हेय भी की है परन्तु वे उसमें उतने सफल नहीं हो सके और उपादेयकी कोटिमें ममा जाने वाले सारे ही इस ग्रंथके शब्द-अर्थका बहुत कुछ अनुसरण एवं तत्त्व साफ साफ झलकते हैं, उनमें यह भ्रम नहीं हो उद्धरण कर लेनेपर भी वे अपने मत्रोंमें वह शब्दपाता कि कौन तत्त्व हेय हैं और कोन उपादेय । साथ मौष्टव और अर्थगौरव तथा अक्षरोंका नपा-तुलापन ही ग्रन्थकारने अपनी लघुताको ऐसी सुन्दरतासे व्यक्त नहीं ला सके हैं जो इस मत्रग्रंथमें पाया जाता है और किया है जिससे ग्रन्थ की गुरुता एवं महत्ता क्म न होने जो वास्तवमें एक मत्रग्रन्थको शोभा देता है। पावे। आपने लिया है कि-'हेयोपादेय तत्त्वों के इस मत्ररचनाके निपुण शिल्पकार आचार्य श्रादर्शरूप इस परीक्षामुग्वमूत्रको, मुझ जैसे बालकने- माणिक्यनन्दीके विषयमें, जिन्हें रत्ननन्दी भी कहते अकलंकादि महाज्ञानियोके समक्ष अपनेको अत्यल्प- हैं, यद्यपि हमे अधिक कुछ भी मालूम नही हैं-उन ज्ञानी अनुभव करने वालेने-हेयोपादेय तत्त्वोंका की एकमात्र यह कति ही उनकी कीर्तिको अमर बनाये सम्यकज्ञान कराने के लिये, परीक्षा-दक्षकी तरहसे रचा हुए है और उनके अन्य सब परिचयको गौण किये है। श्रादि-अन्तके ये दोनो सुन्दर पद्य निम्नप्रकार है- हुए है। फिर भी उनकी इम रचनाके मम्बन्धमे लघु "प्रमाणादर्थ-संसिद्धिस्तदाभासाद्विपययः । अनन्तवीर्य आचार के निम्न वाक्यपरमे इतना जरूर इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्यं लधीयसः ॥ १॥" मालूम है कि वह श्रीअलंकदेवके वचनममुद्रको "परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्वयोः। मथ कर निकाला हुश्रा 'न्यायामृत' हैसंविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद् व्यधाम् ॥२॥" अकलक-बचोऽग्भोधेहधे येन धीमता । यह अद्वितीय ग्रन्थ श्राचार्य माणिक्यनन्दीकी न्याय-विद्याऽमृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥२॥ पुण्य कृति है, जिनका समय विक्रमकी ८वी-हवी -प्रमेयरत्नमाला शताब्दी माना जाता है । और इसलिये आज इस इस वाक्यपरमे जहाँ यह स्पष्ट है कि आचार्य प्रन्थकी रचनाको हजार वर्षसे भी ऊपर होगये हैं माणिक्यनन्दी अकलंकदेवके बाद हुए हैं वहाँ यह भी और यह बराबर उसी तरह सुदृढ़, सुव्यवस्थित तथा स्पष्ट है कि उन्होंने इस ग्रन्थके निर्माणमें समुद्र मथने आकर्षक बनी हुई है। इस ग्रंथपर अनेक टीकाएँ उप- जैसा भारी काम किया है। समुद्रका मथना और उसे लब्ध हैं, जिनमे प्रधान स्थान प्राचार्य प्रभाचन्द्रके मथकर अमृत निकालना कोई आमान काम नहीं 'प्रमेय-कमल-मातेण्ड' को प्राप्त है, जिसकी संख्या होता-वह भारी परिश्रम और असाधारण वद्धिमत्ता १२ हजार श्लोक जितनी है। इस टीकाको पिछले से सम्बन्ध रखता है। समुद्रको मथकर अमृत निकाटीकाकार 'लघु' अनन्तवीर्य आचायने 'उदारचन्द्रिका' लनेमें इंद्रादिक महाशक्तिशाली देवताओंकी प्रसिद्धि की उपमा दी है और अपनी टीका 'प्रमेय-रत्नमाला' है, उन्हीं जैसा दर्द्ध, दामाध्य और अभनपर्व कार्य को उसके सामने जुगनुके प्रकाशके समान बतलाया माणिक्यनन्दीने अकलंकदेवके वचनसमुद्रको मथकर है*। इससे प्रमेयकमलमार्तण्डका महत्व और प्रमेय- इसमत्र ग्रन्थके निकालनेमें किया है और उनका कमल-मार्तण्ड परसे इस सूत्र ग्रंथका महत्व सहज ही निकाला हा यह न्यायसत्र न्यायका अमृत हैमें अवगत हो सकता है। इस ग्रंथके महत्वने बहुतों अविनाशी सार है। *प्रभेन्दु-वचनोदारचन्द्रिका-प्रसरे सति। यहाँ अकलंकके वचनोंको समुद्रकी जो उपमा दी माहशाः कनु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥ ---- प्रमेयकमलमार्तण्डमें श्राचार्य प्रभाचन्द्रने इस सूत्रग्रंथको गम्भीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदं 'गंभीर, निखिलार्थगोचर,प्रबोधप्रद और अद्वितीय बतलाया है- यद्व्यक्तं पदमद्वितीयमखिलं माणिक्यनन्दिप्रभोः । समुद्रको अविनश्रा यालने में
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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