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________________ किरण ३-४] परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम १२१ गई है उसमें कुछ भी अत्युक्ति मालूम नहीं होती। को अकलंकके अर्थका हस्तामलकवत बोध करानेके निःसन्देह अकलंका वाड मय समुद्रकी तरह विस्तृत, लिये कितना अधिक दक्ष है-पर्याप्त है, यह बात गंभीर और दुर्गम ही नहीं किन्तु नाना अर्थोसे समृद्ध प्रभाचन्द्र आचार्य के निम्न प्रस्तावना वाक्यसे भी भले भी है-उसमें न्याय-पदार्थ प्रचुर मात्रामें भरा हुआ प्रकार जानी जाती हैहै। अकलंकदेव न्यायशास्त्रके प्रतिष्ठापक-रूपमे एक "श्रीमदकलकार्थोऽव्युत्पक प्रज्ञैरवगन्तुं न शक्यत बहुत बड़े महर्द्धिक आचार्य होगये हैं-'प्रमाणम- इति नव्युत्पादनाय करतलामलकवत् तदर्थमुद्धृत्य कलंकस्य' और 'अकलंकन्यायात्' जैसे वाक्योद्वारा प्रतिपादाय तुकामस्तत्परिशानाऽनुग्रहेच्छा-प्रोरतस्तउनकी इस विषयमे खास प्रसिद्धि है। उनसे पहले दर्थप्रतिपादनप्रवर्ण प्रकरणांमदमाचार्य: प्राह।" कुछ आत्माभिमानदग्ध मूढ़मति विद्वानों के द्वारा -प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायशास्त्र मलिन कर दिया गया था, जिसपर उन्हे इमसे श्राचार्य माणिक्यनन्दी र उनके इस बड़ा खेद हुआ और उन्होने भ्रमके चक्करम पड़कर परीक्षामुखसूत्रका महत्व भल प्रकार स्पष्ट हो जाता ह आलित एवं नष्ट होते हुए प्राणियोंपर दयाभाव पार इस विषयम काइ सन्दह नहीं रहता कि इस लाकर उम मलिनताको दृर करनेके लिये भारी प्रयास सूत्रग्रंथका अकलकके वाङ्मयपरसे उद्धार हुआ है किया है-न्यायविनिश्चय, मिद्धिविनिश्चय, प्रमागासंग्रह, श्रार यह अकलकक न्याय-विषयक कुछ प्रकरणोका आदि असाधारण महत्वक ग्रन्थोका प्रणयन किया है क ग्रन्थोका प्रणयन किया है उत्तम सार है। श्रन्तु । और अष्टशनी तथा राजवार्तिक जमे उच्चकोटिके बहुत दिनोंम मेरी इच्छा यह मालूम करनेकी थी भाव्यप्रन्थ भी लिख है । अपने इस प्रयासका उन्होने कि अकलंकदवक किन किन वाक्योपरस इस मुत्रकुछ ग्रंथामे उल्लव भी किया है, जिसका एक नमूना ग्रन्थका उद्धार हुआ है। परन्तु अफलंकके सब ग्रन्थ न्यायविनिश्चय ग्रन्थका निम्न पद्य है सामने न होने वह इच्छा पूरी नहीं हो रही थी। बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितः, कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थोका तो पहले कुछ पता भी माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वषिभिः। नही था-केवल अष्टशती, राजवार्तिक और लघीयन्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, वय जैसे ग्रन्थ ही सामने श्रारहे थे । बृहतत्रयका नाम सम्यग्ज्ञानजलर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरः ॥२॥ ही सुना जाता था, जिसके तीन महान ग्रन्थोमें मे अकलंकका वाड मय कितना गहन गंभीर, गूढार्थक अभी न्यायविनिश्चय और प्रमाणप्रहकी ही खोज तथा अव्युत्पन्न विद्वानोक लिये दुर्गम-दुधि है; और होकर उनका उद्धार हो पाया है शेष सिद्धिविनिश्चय उसके कतिपय न्याय विषयोका जो सार इस मूत्र की टीका तो मिल गई है परन्तु उसपरसे मूलग्रन्थका ग्रंथमें अनुग्रह बुद्धिम ग्वीचा गया है वह उन विद्वानों पूरा उद्धार नहीं होता । यह मुलग्रन्थ और भी अधिक प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । और श्राचार्य अन्तवार्य अकलंक-प्रन्योंके कितने समर्थ धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकण्टकम् ।। (धनंजयनाममाला) टीकाकार थे यह यात न्यायविनिश्वयके टीकाकार वादिगजसूरि इस विषयका अच्छा अनुभव अकलंकके सिद्धि विनिश्चय' के निम्नवाक्यसे भले प्रकार जानी जाती है जिसमें वे उक्त जैसे ग्रंथोंके समर्थ टीकाकार श्राचार्य अनन्तवीर्य (महान्) अनन्तवीर्यकी टीकावाणीके विषयमे लिखते हैं कि वह के निम्नवाक्यसे हो जाता है, जिममें वे अपनेको अनन्तवीर्य अकलंक-वाहमयकी अगाधभूमिम संनिहित गूढ अर्थको होते हुए भी, अकलंकदेवके पदोंको पूर्णतया व्यक्त करनेमे पद पदपर व्यक्त करने वाली समर्थ दीपशिखा हैअसमर्थ बतलाते है गूढमर्थमकलंक-वाहमयागाधभूमिनिहितं तदथिनाम् । देवस्याऽनन्तवार्योऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः। व्यंजयत्यमलमनंन्तवीर्यवाक दीपवतिरनिशं पदे पदे ।। न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतत्सरं मुवि ।। -न्यायविनिश्चय टीका
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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