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________________ ११४ अनेकान्त [वर्ष ५ यह वैसा ही होने को कामना करता है। यह जिस रूप लोकमें रहता हुश्रा सदा बेकल रहता है, सदा असन्तुष्ट होने की कामना करता है, या वैसा ही संकल्प विफल रहता है। वह सदा इसकी खामियों की शिकायत करता करता है। यह जिस रूप संकल्प विकला करता है, यह रहता है, वह सदा इसमें हेर फेर करने, इसे अपने वैसा ही होने की चेष्टा करता है-यह जिस रूप होनेकी अनुरूप बनाने, इसके उसातीको विज्य करने, इसकी चेष्टा करता है, यह वैसा ही कर्म करने लगता है-यह सीमाओंको उल्लंघने की कोशिश करता रहता है। जिप्त रूप कर्म काने लाता है, या वैया ही अभ्यस्त होना यह सब कुछ होते हुए भी, जीव अपनी भूल-भ्रान्ति चला जाता है-यह जैमा अभ्यसा होता चला जाता है, अज्ञान-अविद्या, मोह-ममताके कारण इस दुनिय.से यह वैसा ही बन जाता है। ऐसा बन्धा है, कि यह इसकी खामियोंसे ऊपर उठने जब जीव पौद्गलिक भावों में प्रारमश्रद्वा धारण कर की भावना रखते भी, मूढ मृगके समान इसीके पीछे पीछे लेता है, तो यह पुद्गल-समान ही प्रवर्तने लगता है चल रहा है, इसी में बार बार चक्कर काट रहा है। उस समान ही सकम होने लगता है, रागद्वेष करता हुआ ५. जीव जैसे अपने मिथ्या विश्वास, मिथ्या ज्ञान, रुचिकर पुद्गलको अपनी ओर ओर श्राधिकरको परे मिथ्या प्राचारके कारण इस दुनियासे बन्धा है, वैसे ही धकेलने लगता है अपने द्वारा प्रतिसूचम कामणिको, कामीण यह अपने सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् प्राचारद्वारा सूचम तैजसको, तैजलद्वारा सूचनस्थून वायुको वायु द्वारा इससे ऊपर उठ सकता है। बाहरी पदार्थ न इसके द्वारा स्थूल सूक्ष्म अपद्रव्यो, अपद्वारा स्थून पार्थिव पकड़े जाने मे कारण हैं, न वे इसके छुटकारेमे सहायक हो दन्यको ग्रहण करने लगता है। इस प्रकार ग्रहण करता सकते हैं। जीव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, स्वयं हुआ यह पुद्गल के समान ही सपिण्ड होता है। अपना दोस्त और दुशमन है, स्वयं अपना संहारक और उद्धारक है। सपिराष्ट्र होनेपर जीव पिण्डसमान ही तुच्छ और सरिमाण हो जाता है, उस समान ही जन्मने और मरने हम दुःख का अन्त पुद्गल का पीछा करनेसे नहीं हो सकता, उसका पीछा छोड़नेपे हो सकता है; पौद्गलिक वाला, जवानी ओर बुढ़ापे वाला, सुस्ती और तेजी वाला, भावाने प्रवृत्ति करनेमे नही हो सकता, उनपे निवृत्ति करने रोग और विकार वाला होता है। उस समान ही श्राकार से हो सकता है, पौद्गजिक वस्तुओं की इच्छा करने से और स्वभाव वाला बन जाता है, उस समान ही कीट नही हो सकता, उनका त्याग कानेपे हो सकता है। पतंग, हाथी, घोडा, पशु, नर, छोटा-बड़ा, काला-गोरा, पौद्गलिक दुनिया के लिये वर्म-कर्म-विधान करनेसे नहीं स्त्री-पुरुष हो जाता है। हो सकता उसके लिये दण्ड-दण्ड-विधान करनेसे हो ___५. जब जीव पुद्गल-स्वभावो न होते हुए भी पुद्गल सकता है। परिणामी होजाता है, तो यह पद पद पर दुःख उपजाने इस बन्ध दशाका अन्न भूल-भ्रान्तियों में पड़े रहनेमे लगता है। यह दुःख ही जीवन के वैभाविक परिणमनका नही होता, लोके रूढिक मार्गोमे चलनेसे नहीं होता। सबपे यदा सबूत है। जब तक जब पुगत रूप परवस्तुमें इसका अन्त अपनी गलतियोंको निरखने और दूर करनेमे अपनी धारणा बनाये रखना है उनकी बनी हुई दुनियामें होता है, अपनी श्रद्वा अपने में ही जमाने से होता है, भीतर अपनी प्राशायें जमाये रखता है, उसके होने वाले क्रिया- ही भीतर अपनेो देखने और पहिचाननेमे होता है. फलाप में अपनी प्रवर्तना चजाये रखता है, तब तक दुःख पानी प्रवृत्तियोंको बाहिरसे हटा कछुवेकी तरह भीतरकी इसका पीछा नहीं छोड़ता। और लेजानेसे होता है, इन्द्रियोंका संयम पालने, मनदुःख जीवनका इष्ट नहीं, तो फिर उसका कारणीभूत वचन-कायके त्रियोगोंको वश करने, प्राकृतिक कठिनाईयों वैभाविक परिणमन अथव। पौद्गलिक लोक, जीवनके वो सहन करने, और सब ही भावोंको प्रारमद्वारा संवरण लिये कैसे इष्ट हो सकते हैं ? यही कारण है कि जीव इस करनेसे होता है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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