SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ३-४ ] लिये राजपाका त्याग कर दिया, विश्वकल्याणके लिये कुटुम्ब परिवारका त्याग कर दिया, विश्वविभूतियोंके लिये वस्त्राभूषणोका त्याग कर दिया, अक्षय सुखके लिये दुनियावी सुखोंका त्याग कर दिया। "जिसको जो कुछ बनना होता है, उसके अनुरूप ही उसे अपना रंग ढंग भी बनाना होता ही है"- यह सोच कर ही मानों उसने विश्वसम्राट बननेके लिये अपना रंग ढंग विश्वमा सरीचा ही बना लिया, बायलयों पर ठहर, अनेक द्वीप और सागरोंसे घिरे पृथ्वीतलको अपना सिंहासन बना लिया ऊंचाई और तारोंसे भरे श्राकाशको अपना छत्रमण्डप बना लिया, दूर तक फैली हुई और किरणों चकाचौन्द दिशाओं को अपना जामा बना लिया, दायें बाये बनी कली कुम्मों खेतीसम को अपना चमर बना लिया; मान उत्तङ्गोको झुकाने वाले दिलोको लुभाने वाले विनयको अपना मुकुट बना लियाशत्रयोंको रुलाने वाले, दोनोंको मिटाने वाले त्रिदण्डको राजदण्ड बना लिया । , फिर पूर्व दिशा की ओर बैठ उसने पूर्व सिद्धों को याद किया, उन जैसा होनेकी भावना कर "मेरी अब किसी पापमें भी प्रवृत्ति न हो", ऐसा दृढ संकल्प किया। फिर शंका, चाचा, स्नेड, ग्लानि, राग, द्वेष, दर्प विषाद, चिन्ता क्लेश श्रादि सब ही विकल्पोंको छोड़ सम्भाव धारण कर लिया । भगवान महावीरकी झांकी "मूहिक जीवनमे विश्वजीवनको और जानेके लिये राज्य और समाज रूटिक मागोंको छोड़ सहजमिद प्राकृतिक मार्गये चलना जरुरी ही है" "विश्वजीवनका भोग करनेके लिये वमनीकी कृत्रिम सीमाओंको उल्लंघ विश्वतों के बीचमें रहना, विश्वजी दिलमिलके बहना जरूरी ही है" - यह जान कर ही मानो, उसने बनका मार्ग लिया । सिंह समान निर्भय, पृथ्वी समान चमाशील, बायुसमान स्वतन्त्र, श्राकाश समान निर्लेप हो वह वन और पर्वतोंके प्राकृतिक स्थलोंमे एकाकी, निस्पृह, निर्मन्थ रहने लगा । वह एक गाढ विचारक था वह जहां श्रमरसका एक अद्वितीय रसिया था, वहां वह आमतवका एक गाढ़ चिन्तक भी था । वह श्रात्मरस लेते भी हरदम श्रारमचिन्तनमें लगा रहता, हर दम जीवन की समस्यायोंको सुलझाता रहता। उसकी विचारणा क्या थी ! एक अविरल धारा थी, जो सदा एक छोटेसे तंगतारीक दुःखी जीवनमेंसे निकल एक असीम धनन्त शिवशान्त जीवनकी ओर बहती रहती । यह विश्वार लहरी जब बहना श्रारम्भ करती तो सात तत्वोंमेंसे होकर कुछ इस प्रकार बहती : ११३ १. वह दुनियाषी जीवन क्या है! एक भारी विरोध है । यह सुख चाहते भी दुःखोंसे घिरा है, ज्योति भी अन्धकार का है, पूर्णता चाहते भी पूसा भरा है, अत चाहते भी जन्म पशु और हासे छाया हुआ है, इसका लक्ष्य कुछ और है, इसका भोग कुछ और है। ऐसा जीवन वास्तविक जीवन नहीं हो सकता । 1 वास्तविक जीवन तो भीतरी भावनाके अनुरूप ही होना चाहिये-सच्चिदानन्द, शिव, शान्त सुन्दर अजर, श्रमर, विभु भीतरी लोकमें ही बसा हुआ - बुद्धि से नहीं, श्रुतिमे ही अनुभव होनेवाला । २. जन्म, मरवा, रोग, बुढापा अपूर्णता घोर अन्ध कार, भूख और प्यास, पीस और चक, निद्रा और घाटि ओ भी भाव चाग्माको अचिकर है, आमाको हानिकर हैं. मामे विरोध पैदा करनेवाले है, आत्मा दुःख पैदा करने वाले हैं, आत्मामे असन्तोष पैदा करने वाले हैं वे सब जोवतत्वका स्वभाव नहीं, जीव तत्वका स्वभाव - सब बाहिर में रहने वाले, बुढिये सूमने वाले क्षेत्र से परिमित, काल परिमित धर्म और धर्म से छाये हुये पुद्गलका स्वभाव है। ये सब बनने और बिगड़ने वाले टूटने और जुड़ने वाले, नया और पुराना होने वाले उपतेजित धीर मुस्त होने वाले, पुद्गल पिण्डों का स्वभाव है । २. यद्यपि जीवतस्व और अजीवतत्त्व दोनोंमें श्राकाश पातालका अन्तर है एक भीतर में रहने वाला श्रमूर्त, श्रवि - नाशी, चेतन स्वभावी है, दूसरा बाहिरमें रहने वाला, मृर्त, विनाशी, जदस्वभावी है परन्तु जीवनकी योगशक्ति कुछ ऐसी अद्भुत और बहुरूपिणी है कि वह उसके द्वारा अपने और पराये जिस भावको भी अपनाता है, वह उसी रूप होता है। 1 जीवजिस किस भाव में धात्मधारणा धरता
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy