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अनेकान्त
इसी लिये यहांकी कोई बात भी उसके मनको न भाती यहांकी कोई चीज़ भी उसकी श्रांखों में न समाती । यह लोक उसके लिये था ही क्या ! निरा बन्ध, बंध बंध !
वह यहां जिधर निगाह डालता, उसे वहां ही निस्सारता, उदासीनता, भयानकता सी छाई नजर श्रामी । वस्त्राभूषण उसे चलनेमें रुकावट सी महसूस होते, विषयभोग काले काले नागसे लगते, दुनियावी विभूतियां आडम्बर सी मालूम होतीं, मकान महल दम घोटने वाले कटघरेसे जान पड़ते, इठलाती किलकिलाती युवतियां कंकालका ढेर सी लगती, खेलते हँसते युवक मौतका बीना सा सूझ पडते, बड़े बड़े ग्राम और नगर जनपद और राष्ट्र उसे श्मशानकी तरह असते, पूल बन कर उ हुए दिखाई पडते । इतना ही नहीं, यह सारी दुनिया बडी तेजीके साथ सरकती हुई, काल कण्ठमें उतरती हुई, विस्मृतिके अथाह में विशेष होती हुई साचान् नज़र श्राती ।
जब जब यहां के दुःखभरे दृश्य उसके सामने श्राते वह एक दम सहम सा जाता, सिमट और सुकवाकर श्रलगको हो जाता, वह एक गहरी चिन्तामें पड़ जाता, वह इस दुनियाको एक छोरमे दूसरे छोर तक जांच कर निश्रय करता "यह दुनिया श्रनित्य है, जलधाराकी तरह निरन्तर बढने वाली है, यहां किसीको कयाम नहीं, यह अनेक दुःखों से भरी है, जन्म जरासे पीड़ित है, मौतकी घटा इस पर छाई है—यहां जीवन पराधीन है, अशरथ है, असहाय है।"
जय जब वह लोगोंको इस दुनियाकी बीओोंने रंगरलियां करता हुआ पाता, इनके लिये अहंकार ममकार करते हुये सुनता --- इनके लिये लड़ते झगड़ते हुये देखता, तो भीतर मे बहुत ही कुढता और कहता हा ! हा ! हा ! ये लोग कैसे विर है, इन्हें पता नहीं कि वह लोक, विमूढ़ जहां ये रह रहे हैं, इनका लोक नहीं, यह कालका लोक है भूर्तीका लोक है, प्राकृतिक शक्तियोंका लोक है, इन पर किसीका अधिकार नहीं, इनकी यहां जो कुछ परिपालना हो रही है, वह सब कालका ग्रास बननेके लिये ही हो रही है । यह काल बड़ा निष्ठुर है, बड़ा विघातक है, बड़ा प्रपची है—यह जिसकी पालना करता है, उसे यह खुद ही
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अपने हाथों रेखाकीर्ण करके हडप कर जाता है -- यह लोग इस कालसे बिल्कुल बेखबर हैं--इन्हें अपने अन्तका पता नहीं, अपने भले बुरेका पता नहीं, प्रेय और श्रेयका पता नहीं। इनका उद्धार हो तो कैसे ?”
ऐसा लौकिक पुरुष होते हुए भी अचम्भा है कि वह तीस वर्ष तक घर मे कैसे ठहरा रहा ! निस्सन्देह, वह बडा ही अलौकिक था, पर उसके मां बाप, उसके भाई बन्धु, उसके नातेदार तो लौकिक न थे, वे भला यों ही उसका पता कैसे खो देते ही उसे अपने से जुदा कैसे कर देते। वे उसके श्राज्ञाकारी स्वभावका सहारा लेकर तीस वर्ष तक उसके और उसके लक्षके बीचमे खड़े रहे। इस अरसे में इन्होंने बहुत चाहा कि किसी तरह समझा बुझा कर इसे अपना बनाले, विवाहके सूत्रमें बान्ध-जूड कर इसे जगका करलें इसके लिये अनेक षड़यन्त्र रचे गये---कामदेव भी छाया, उसने भी अपने पुष्पको बधानमाया शैतान भी आया, उसने भी अपने मोहजालको विद्या भैरव रुद्र भी आया, उसने भी लाल-पीली आंखोंसे खूब डराया, पर किसीकी भी कुछ न चली ! सब ही योजनायें विफल रहीं और रहती क्यो न ? वह कोई साधारण क्षत्रिय तो था ही नही जो मोह लालसा में श्राजाता किसी डॉट इटसे डरता। वह था महापरिवर महावीर, उच्च विचार वाला, दृढ संकल्प वाला, साहसी और उत्साही, पराक्रमी और पुरुषार्थी । वह था सब ही को विजय करने वाला, सब ही पर शासन करने वाला, सब ही को अपना बनाने वाला फिर वह छोटेसे गृहस्थसे तृप्त कैसे होता ? छोटेसे राज्यसे सन्तुष्ट कैसे होता ? थोडेसे शासनसे खुश कैसे होता ?
शाखिर वह परसे
सीस वर्षकी खीचातानीके बाद निकला ही निकला गिरा कुमार की तरह मासूम, फूलकी तरह प्रफुलित, अमिकी तरह तेजस्वी चन्द्रमा श्रग्निकी समान सौम्य ।
वह विश्वसम्राट् था
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घरसे बेघर हो अपनी मनोरथसिद्धिके लिये सबसे पहिली योजना जो उसने की, वह परित्याग की थी । "बदी चीज़की पानेके लिये छोटी पीठका याग करना ही होता है" यह सोच कर ही मानों उसने विश्व- शासनके